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प्रवचनसारः
KALRAKA
इवर अन्य
THERONPATI
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ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशरसंपृशन्न प्रविष्टः शक्तिवैचित्र्यवशातो वस्तुवतिनः समस्तजयाकारानुन्मूल्य इव कवलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति ध । एवमस्य विचित्रशक्तियोगिनो शानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रबेशोऽपि सिद्धिमवतरति ॥ २६ ॥
प्रविष्ट: अविटठो अविष्ट:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया।णाणी ज्ञानी-० एका०1 येसु जयेधु-सप्तमी बहु । रुवं पं-हित o चवधू चक्षुः-.प्र.० ए० 1 जाण दि जानाति पस्रादि पश्यतिवतमान लट अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। यिद नियतं-अव्यय क्रियाविशेषण । अक्खातीदा अक्षा Ho To | जगदु जगत् असेसं अशेष--द्वि एक निरुक्ति ----प्रकर्षेण विष्टः प्रविष्टः,न विष्ट; अविष्टः ।) समास- अक्ष अतिक्रान्तः अक्षातीतः ॥ २६ ।। RAN प्रसंग विवरण-----अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी व ज्ञेयका परस्पर प्रवेश नहीं है । अब इस गयामें बताया गया है कि ज्ञानी प्रथोंमें अप्रविष्ट होकर भी प्रविष्ट हुमा पदार्थोंको जानता है।
तथ्यप्रकाश- (१) बहिर्शयाकार तो ज्ञेयपदार्थों में हो है, ज्ञातासे बाहर ही है। (२) पत्त याकार ज्ञाताकी ज्ञेयोंके विषयमें जाननेरूप खुदकी परिणति है । (३) ज्ञाता अन्तर्जेयाकारों में प्रविष्ट है, अन्तयाकार ज्ञातामें प्रविष्ट है । (४) बहिर्जेयाकार ज्ञातामें प्रविष्ट नहीं, भाता बहियाकारोंमें प्रविष्ट नहीं । (५) ज्ञानकी स्वाभाविक कला ही है ऐसी कि ज्ञानमें ज्ञेयों को झलकना पड़ता ही है । (६) ज्ञेय पदार्थका अस्तित्व उसी पदार्थमें है। (७) ज्ञेयपदार्थविष्यक झलक ज्ञातामें है । (८) समक्ष स्थित पदार्थके अनुरूप प्रतिबिम्ब दर्पणमें है, समक्ष स्थित पदार्थ पदार्थमें ही है । (8) दर्पणाको प्रकृति ही ऐसी है कि दर्पणा में समक्षस्थित पदार्थों को मलकना ही पड़ता है।
सिद्धान्त -- (१) ज्ञाता अपने आपके प्रदेशों में ही रहकर अपने पापके परिणामको ही जानता है । (२) माता ज्ञानमुखेन ज्ञेयपदार्थोंमें प्रविष्ट हुया उन्हें जानता है ।
दृष्टि..... १-- शुनिश्चयनय [४६] । २-- सर्वगतनय [१७१], पराधिकरणत्व असदुद्भूत व्यवहार [१३४] ।
प्रयोग---बहिर्जेयाकारसे पृथक् अन्त याकारपरिमात अपनेको निरखकर अन्त याकार परिणमनके स्त्रोतभूत सहज चैतन्यस्वभावको प्रात्मरूप अनुभवना ।। २६ ॥
- अब इस प्रकार ज्ञान पदार्थों में प्रवृत्त होता है, यह संभावित करते हैं---[यथा जैसे इह] इस जगसमें [दुग्धाध्युषितं] दूधके मध्य पड़ा हुप्रा [इन्द्रनील रत्नं] इन्द्रनील रत्न [स्वमासा] अपनी प्रभाके द्वारा [तदपि दुग्धं] उस दूधको [अभिभूय] व्यापकर [वर्तते] वर्तता है, [तथा उसी प्रकार [ज्ञान] ज्ञान अर्थात् ज्ञातृद्रव्य [अर्थेषु] पदार्थों में व्याप्त होकर
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