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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथार्थेष्ववत्तस्यापि ज्ञानिनस्तद्वत्तिसाधकं शक्तिवैचित्र्यमुद्योतयति.....
ण पविट्ठो रणाविट्ठो गाणी येसु रूवामिव चक्खू । जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ॥२६॥
नहिं मग्न अमग्न नही, ज्ञानी ज्ञेयों में रूप चयूवत् ।
इन्द्रियातीत वह तो, जाने देखे समस्तोंको ॥२६॥ न प्रविष्टो नावाटो जानी जयेषु रूपमिय चक्षुः । जानाति पश्यति नियतमक्षानीतो जगदशेषम् ।। २६ ।।
___ यथाहि चक्षू रूपियारिग स्वप्रदेशैरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात् कुर्वन्न चाविष्टं जानाति पश्यति च, एवमात्माप्यक्षातीतत्वात्प्राप्यकारिताविचारगोचरदरतामवालो
नामसज-ण पविट ण आविट्ठ णाणि रणेय रूव इव चक्ख णियद अक्खातीद जग असेस । धातुसंज्ञ--विस प्रवेशने, जाण अवधोधन पास दर्शने । प्रातिपदिक....न प्रविष्ट न अविष्ट ज्ञानिनु जय रूप इव चक्षुषु नियत अक्षातीत जगत् अशेष । मुलधातु--जा अवबोधने. इशिर् दशने। उभयपदविवरण--- न ही प्रदेशों में अपने ही स्वरूपसे परिणामते रहते हैं ।
दृष्टि---१-परद्रव्यादिग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय (२६)। २-अगुरुलघुत्वदृष्टि (२०७) । प्रयोग—अपनेको परसे अत्यंत पृथक और अपने स्वरूपमात्र अनुभवना चाहिये ।।२८।।
ज्ञानी पदार्थो में प्रवृत्त नहीं होता, तथापि जिससे उसका अन्य पदार्थों में प्रवृत्त होना सिद्ध होता है उस शक्तिवैचित्र्यको उद्योत करते हैं..--[चक्षुः रूपं इव] जैसे चक्षु रूपको ज्ञेयोंमें अप्रविष्ट रहकर तथा अप्रविष्ट न रहकर जानती, देखती है उसी प्रकार ज्ञानी] प्रात्मा
पक्षातीतः] इन्द्रियातीत होता हुआ [प्रशेषं जगत्] समस्त लोकालोकको [ज्ञेयेषु] ज्ञेयोंमें [न प्रविष्टः] अप्रविष्ट रहकर [न प्रविष्टः] तथा अप्रविष्ट न रहकर [नियतं] निरन्तर [जानाति पश्यति] जानता देखता है।
___ तात्पर्य--प्रात्मा ज्ञानापेक्षया ज्ञेयों में प्रविष्ट होकर व प्रदेशापेक्षया शेयोंमें अप्रविष्ट होकर जानता देखता है।
टोकार्थ—जिस प्रकार चक्षु रूपी द्रव्योंको स्वप्रदेशों द्वारा द्वारा स्पर्श न करता हुआ अप्रविष्ट रहकर तथा ज्ञेयाकारोंको प्रात्मसात् करता हुअा अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है; उसी प्रकार प्रात्मा भी इन्द्रियातोतपनाके कारण छू कर जानने देखने के विचार विषयसे भी दूर हुप्रा ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओंको स्वप्रदेशोंसे स्पर्श न करता हुआ प्रविष्ट न रहकर तथा शक्तिवैचित्र्यके कारण वस्तुमें वर्तते समस्त ज्ञेयाकारोंको मानो मूलमें से हो उखाड़कर भक्षण करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है । इस प्रकार इस विचित्र शक्ति वाले आत्माके पदाथोंमें अप्रवेणकी तरह प्रवेश भी सिद्ध होता है ।
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