________________
DoAARAMMIS
सहजानन्दशास्त्रमालायां
दपि स्यात् । कि चानेकान्तोऽत्र बलवान् । एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतमत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात् । सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात् ज्ञानस्याभाव प्रात्मनः शेषपर्यायाभावस्तदबिनाभाविनस्तस्याप्यभावः स्यात् ।।२।। इति ण न ३ वा-अव्यय । अपाणं आत्मान-द्वि० ए० । तम्हा तस्मात् ६० ए० । णाणं ज्ञानं अप्पा आत्मा अप्पा आत्मा गाणं ज्ञान अण्ण अन्यद-प्र. एक | निरुक्ति ...अतति सततं गछति जानाति इति आत्मा, जानाति इति ज्ञायते अनेन इति वा अप्तिमाथा झानम् ॥२७॥ हो है । ( ४ ) ज्ञान गुरणसे ही सर्व व्यवस्था होती है अत: अनंताधर्ममय होने पर भी ज्ञानको मुख्यतासे आत्माको ज्ञानमय कहा जाता है । (५) अभेददृष्टि से सर्व परिणमन ज्ञानपरिणमन रूपसे घटित हो जाते हैं । (६) भेददृष्टि से सर्व परिणामन भिन्न-भिन्न गुणों के परिणमनरूपसे विदित होते हैं । (७) यदि सर्वथा ज्ञानको ही आत्मा कहा जाय तो प्रात्मा ज्ञान गुणमात्र हो रहा, फिर आत्मामें अानंद प्रादि गुण नहीं रह सकते । (८) यदि अात्मा में ज्ञानगुण ही मानकर पानंद वीर्य प्रादि धर्मों का प्रभाव माना जाय तो उन सब गुणोंका अभाव होनेसे प्रात्माका भी अभाव हो जायगा। (६) अन्य गुणोंका अभाव होनेसे प्रसक्त अात्माका प्रभाव होनेसे आधारके अभावमें प्राधेयभून ज्ञानगुणका भी प्रभाव हो जायगा । (१०) प्रात्मा च्याएक है, ज्ञान न्याय है, अतः ज्ञान आत्मा है, अात्मा ज्ञान है अन्य भी है।
सिद्धान्त --(१) आत्मा शाश्वत ज्ञानस्वभावमें नियत है । (२) प्रात्मा दर्शन झान आदि अनंत गुण वाला है।
दृष्टि ----१- नियलिनय (१७७) । २-- 'पर्यायनय (भेदनय) (१५३) ।
प्रयोग---ज्ञान दर्शन आदि गुणोंसे प्रात्माका परिचय कर ज्ञान द्वारा ज्ञानमात्र अपने को अनुभवना ॥२७॥
अब ज्ञान और ज्ञेयके परस्पर गमनका निषेध करते हैं, अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय एक दूसरेमें प्रवेश नहीं करते ऐसा कहते हैं.---- [ज्ञानी] आत्मा [ज्ञानस्वभावः] ज्ञानस्वभाव है [अर्थाः हि] और पदार्थ [ज्ञानिनः] आत्माके [ज्ञेयात्मकाः] ज्ञेयस्वरूप हैं ये रूपाणि इब चक्षुषोः] चक्षुवोंमें रूपकी तरह [अन्योन्येषु] एक दूसरेमें [न एव वर्तन्ते] नहीं वर्तते ।
तात्पर्य-परमार्थतः न ज्ञानमें ज्ञेय जाता है और न ज्ञेयमें ज्ञान जाता है।
टोकार्थ---यात्मा और पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्वके कारण एक दूसरेमें नहीं बर्तते हैं, परन्तु उनके मात्र नेत्र और रूपी पदार्थकी भांति ज्ञानज्ञेयस्वभाव सम्बन्धसे होने वाली एक दूसरे में प्रवृत्ति मात्र कहा जा सकता है । जैसे नेत्र और उनके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारोंको ग्रहण और समर्पण करनेके स्वभाव वाले हैं, उसी प्रकार
S wapingManomiAahilaenimmisplitictimsanilipmeanipa
w
algaran
MARATommyinpaswi
m
weapmapmapianmmmmmmताका