Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सामान्यस्वरूपविचारः
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मानते हैं वह भी एकान्त हटाग्रह है, सामान्य और विशेष में सर्वथा एकत्व-तादात्म्य होगा तो एक व्यक्ति उत्पन्न होने पर या नष्ट होने पर सामान्य को भी उत्पन्न या नष्ट होना पड़ेगा, तथा व्यक्ति के समान सामान्य भी विशेष असाधारण रूप ही रह जायगा फिर उसमें अनेक व्यक्तियों में समानता का ज्ञान कराने की शक्ति नहीं रहेगी। मीमांसक भी नैयायिक की तरह सामान्य को एक नित्य मानते हैं सो गो आदि व्यक्तियों में अकेला सामान्य पूर्ण रूप से समाप्त होकर रहेगा तो व्यक्तियां मिलकर एक मेक बन जायगी या सामान्य अनेक हो जायगा, अंश अंश रूप से जाना भी संभव नहीं, क्योंकि आपका सामान्य निरंश है। अहो बड़ी भारी आपत्ति है कि निरंश एक रूप सामान्य कहीं जा नहीं सकता, पहले व्यक्ति अंश को छोड़ नहीं सकता, कहीं से पाता नहीं, पहले रहता नहीं । जैन द्वारा इस तरह खंडित होते देख बीच में ही उद्योतकर महाशय कहते हैं कि गायों में अनुवृत्त प्रत्यय गो पिण्ड से न होकर किसी भिन्न ही नित्य सर्वगत सामान्य से होता है, विशेषक अर्थात् भेद करने वाले होने से, नीलादि प्रत्यय की तरह, यह गोत्वादि सामान्य गायों से भिन्न है इत्यादि । सो हम जैन तो गोत्व का कारण सदृश परिणाम बतला ही रहे हैं । गायों से गोत्व भिन्न होकर अनुगत ज्ञान कराता है तो सामान्यों में 'सामान्य है सामान्य है' ऐसा अनुगत ज्ञान कराने के लिये कौनसा कारण है ? अन्य सामान्य माने तो अनवस्था स्पष्ट है और स्वतः माने तो वस्तु वस्तु में स्वतः निजी सामान्य धर्म से अनुगत ज्ञान क्यों न हो जाय । तथा प्रागभावादि में भी "अभाव है अभाव है" ऐसा अनुगत ज्ञान होता है सो किस कारण से होगा ? अाप प्रभावों में सामान्य मानते नहीं। जहां पर सामान्य हो वहीं अनुगत ज्ञान होगा ऐसा कहना भी शक्य नहीं, पाचकादि में अर्थात् रसोइया आदि पुरुषों में पाचकत्व सामान्य नहीं है तो भी "यह पाचक है" "यह पाचक है" ऐसा अनुगत ज्ञान होता है। गो में गोत्व रहता है, सो इस वाक्य का क्या अर्थ है, गो में ही रहता है, गो में गोत्व ही रहता है, अथवा गो में गोत्व रहता ही है ऐसा एवकार तीन जगह लगाकर कहने पर भी आपके एकांतवाद के कारण कुछ भी सार नहीं निकलता । गो में गोत्व ही है ऐसा पहला पक्ष लेवे तो गो में अन्य सत्वादि गुण न रह सकेंगे । गो में ही गोत्व रहना आप कह नहीं सकते क्योंकि आपके पास गोत्व एक है और गो अनेक हैं सो निरंश एक गोत्व का सबके साथ अन्वय हो नहीं सकता। हम जैन तो ऐसा कह सकते हैं क्योंकि हमारे यहां प्रति व्यक्ति भिन्न ऐसा सादृश्य परिणाम स्वरूप वाला सामान्य माना है। गो में गोत्व रहता ही है,
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