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संबंधसद्भाववाद:
तत्त्ववन्निह्नवनीयो येन स्थूलादिप्रतीतेोन्तत्वात्तत्स्वभावतार्थस्य न स्यात् । चित्रज्ञानवद्युगपदेकस्यानेकाकारसम्बन्धित्ववत्क्रमेणापि तत्तस्याविरुद्धम् । इति सिद्ध परापरविवर्त्तव्याप्येकद्रव्यलक्षणमूर्खतासामान्यम् ।
। सम्बन्धसद्भाववादः समाप्त।।
नील पीत आदि आकार प्रतीत होते हैं, या एक ज्ञान का एक साथ अनेक आकारों के साथ सम्बन्धीपना हो सकता है, वैसे क्रम क्रम से भी उस ज्ञान में अनेक प्राकार ( कार्य कारण आदि ) प्रतीत हो सकते हैं, कोई विरुद्ध बात नहीं है। इसतरह जब कार्य कारण संबंध को ग्रहण करनेवाला ज्ञान मौजूद है तो उस सम्बन्ध का कैसे खंडन कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते ।
इसप्रकार "परापर विवर्त्तव्यापि द्रव्य मूर्खता मृदिव स्थासादिषु ।। इस सूत्र में जो ऊर्ध्वता सामान्य का लक्षण बतलाया था वह निर्बाध सिद्ध हो गया । इस सूत्र में जब प्राचार्य ने यह कहा कि पर अपर अर्थात् पूर्व और उत्तर पर्यायों में व्यापक रूप से रहनेवाला जो एक ही द्रव्य होता है उसे ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं इत्यादि तब बौद्ध ने द्रव्य को क्षणिक सिद्ध करने के लिए अपना लम्बा पक्ष स्थापित किया था उसका आचार्य ने खण्डन किया, तथा इसी ऊर्ध्वता सामान्य भूत द्रव्य में जो कार्य कारण भाव रहता है उसको दूषित करने का बौद्ध ने असफल प्रयत्न किया तब संबंध का सद्भाव सिद्ध किया इसतरह इस चौथे परिच्छेद के छठे सूत्र की व्याख्या करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने बौद्ध के क्षणभंगवाद का खण्डन किया है और असम्बन्ध का निरसन कर कार्य कारण भाव, व्याप्य, व्यापक भाव आदि अनेक तरह के सम्बन्ध को सत्यभूत सिद्ध किया है ।
॥ संबंधसद्भाववाद समाप्त ।।
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