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प्राकाशद्रव्यविचारः
२६१ अत्र प्रतिविधीयते । शब्दानां सामान्येनाश्रितत्वं किमतः साध्यते, नित्यकामूर्तविभुद्रव्याश्रितत्वं वा? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता; तेषां पुद्गलकार्यतया तदाश्रितत्वाभ्युपगमात् । द्वितीयपक्षे तु सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनानै कान्तिको हेतुः; तथाभूत साध्यान्वितत्वेनास्य क्वचिदृष्टान्तेऽप्रसिद्धः । प्रतिषिध्यमानकर्मभावत्वे सत्यपि च प्रतिषिध्यमानद्रव्य भावत्वमसिद्धम् ; द्रव्यत्वाच्छब्दस्य । तथा हि-द्रव्यं शब्द:, स्पर्शाल्पत्व महत्त्वपरिमाणसंख्यासंयोगगुणाश्रयत्वात्, यद्यदेवंविधं तत्तद्रव्यम् यथा बदरामलकबिल्वादि, तथा चायं शब्दः, तस्माद्द्व्यम् ।
जैन-पाकाश द्रव्य का जो भी आपने वर्णन किया है वह सर्व गलत है, आप जो शब्दों का प्राश्रय हो वह अाकाश द्रव्य है ऐसा कहते हैं, सो शब्द को गुण बतलाकर उस गुणरूप हेतु द्वारा सामान्य रूप से शब्दों का कोई आश्रय होना चाहिए ऐसा सामान्य से आश्रितपना सिद्ध करना है अथवा नित्य, व्यापक, एक, अमूर्त ऐसे द्रव्य के आश्रित ही शब्द रहता है इस तरह का पाश्रितपना सिद्ध करना है ? प्रथम पक्ष की बात कहो तो ठीक ही है, क्योंकि शब्द पुद्गल द्रव्य का कार्य होने से उसके आश्रित रहते हैं ऐसा हम जैन मानते हैं। दूसरा पक्ष-गुणत्व हेतु द्वारा शब्द का नित्य, एक, व्यापक द्रव्य का आश्रितपना सिद्ध किया जाता है, ऐसा माने तो यह गुणत्वहेतु संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्ति वाला होने से अनैकान्तिक बन जाता है, अर्थात् आपका जो अनुमान वाक्य था कि "शब्द: कवचित् प्राश्रितः गुणत्वात् रूपादिवत्" शब्द कहीं पर आश्रित रहता है, क्योंकि वह गुण है, जैसे कि रूप रसादि गुण होने से आश्रित रहते हैं, सो इस गुणत्व हेतु द्वारा शब्द का आश्रयपना तो सिद्ध होवे किन्तु वह आश्रय नित्य, व्यापी, एक अमूर्त ऐसा द्रव्य ही होवे ऐसा तो कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि जो भी गुण हो वह सब ही नित्य, व्यापक, एक द्रव्य के आश्रित हो सो बात नहीं है तथा इस तरह के साध्य के साथ उस हेतु का अविनाभाव भी दृष्टांत में कहीं देखा नहीं जाता, अर्थात् रूप रस आदि गुण होने से कहीं आश्रित है ऐसा कहना तो ठीक है किन्तु ये रूप आदिक गुण नित्य, व्यापी, एक, अमूर्त द्रव्य में पाश्रित नहीं रहते, अतः गुणत्व हेतु द्वारा शब्द में नित्य, अमूर्त व्यापक द्रव्य का आश्रयपना सिद्ध करना अशक्य है ।
आपने कहा कि शब्द में द्रव्यपने तथा कर्मपने का प्रतिषेध है, इस पर हम जैन का सिद्धांत है कि शब्द में कर्मपने का भले ही निषेध हो जाय किन्तु द्रव्यपने का निषेध करना प्रसिद्ध है, शब्द तो द्रव्य स्वरूप ही है, अनुमान से शब्द को द्रव्यरूप सिद्ध करके
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