Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 759
________________ ७१६ प्रमेयकमलमार्तण्डे शुद्ध ३६७ ४४७ ४७६ ५०४ ५१४ ५१६ ५१७ ५४४ ५४४ ५६४ २७ अशुद्ध [जानने का] कोई नहीं . [जाननेका] कोई कारण नहीं इसप्रकार जैन-इसप्रकार सत्करी सत्ता" द्रव्य, गुण, सत्करी सत्ता" कर्म इन तीन पदार्थों में सत्ता के समवाय से सत्त्व होता है। नियाम्येत नियम्यते यह धर्म इसी धर्म का यह धर्म इसो धर्मों का क्रमं । ध्याचष्टे क्रम व्याचष्टे । ज्ञान रसका रसका वह प्रत्यक्षा भास इसी को वह प्रत्यक्षाभास है । आगे इसी को यह पशु आगे है यह पशु अगो है अपक्षक देश सपक्षक देश अतिवादी प्रतिवादी अतः होता है, किसी अता किसी अब दृष्टांत ही अब अदृष्टान्त ही बताया ही नहीं बनाया ही नहीं नश्वत्व नश्वरत्व तदुद्भावनसार्थ्य तदुद्भावनसामर्थ्य खात्कृताकम्प खात्कृतकम्प । एव अन्त ह्यान्तः । अन्तः एव ह्यान्तः भासितभूत्पाद्या भासितभूत्याद्या प्रमीति प्रमिति गृहीते भिन्न च यदा गृहीते भिन्न चार्थे यदा कानां तन्निश्चः कानां तन्निश्चया ५६६ ५६७ ५६६ ५६६ ६१३ ६४५ ६८५ ६५५ ६८५ ६६२ ७०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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