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प्रमेयकमलमार्तण्डे
वैशद्यपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥ ७ ॥
न हि करणज्ञानेऽव्यवधानेन प्रतिभासलक्षणं वैशद्यमसिद्ध स्वार्थयोः प्रतीत्यन्तरनिरपेक्षतया तत्र प्रतिभासनादित्युक्त तत्रैव । तथाऽनुभूतेर्थे तदित्याकारा स्मृतिरित्युक्तम् । अननुभूते
बताते हैं-पहले प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण करते हुए विशदं प्रत्यक्षम् ऐसा कहा था, इस लक्षण से विपरीत अर्थात् अविशद-अस्पष्ट या अनिश्चायक ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं किन्त प्रत्यक्षाभास है, जैसे-जिस व्यक्ति को धूम और वाष्पका भेद मालूम नहीं है उस ज्ञान के अभाव में उसको निश्चयात्मक व्याप्ति ज्ञान भी नहीं होता कि जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि अवश्य होती है, ऐसे व्याप्तिज्ञान के प्रभाव में यदि वह पुरुष अचानक ही धूम को देखे और यहां पर अग्नि है ऐसा समझे तो उसका वह ज्ञान प्रमाण नहीं कहलायेगा अपितु प्रमाणाभास ही कहलायेगा, क्योंकि उसे धूम और अग्नि के सम्बन्ध का निश्चय नहीं है न वह धूम और वाष्प के भेद को जानता है, इसीतरह बौद्ध का माना हुआ निर्विकल्प प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है किन्तु प्रत्यक्षाभास है, क्योंकि जैसे अकस्मात् होने वाले उस अग्नि ज्ञान को अनिश्चयात्मक होने से प्रमाणाभास माना जाता है वैसे हो निर्विकल्प दर्शन अनिश्चयात्मक होने से प्रत्यक्ष प्रमाणाभास है ऐसा मानना चाहिये । इस विषय का प्रथम भाग में प्रत्यक्ष परिच्छेद में विस्तारपूर्वक कथन किया है।
वैशेद्यपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ।।७।।
अर्थ-विशद ज्ञान को भी परोक्ष मानना परोक्षाभास है, जैसे मीमांसक का करणज्ञान, अर्थात्-मीमांसक करणज्ञान को [जिसके द्वारा जाना जाय ऐसा ज्ञान स्वयं परोक्ष रहता है ऐसी मीमांसक की मान्यता है, तदनुसार परोक्ष मानते हैं वह मानना परोक्षाभास है, क्योंकि करण ज्ञान में अव्यवधानरूप से जानना रूप वैशद्य प्रसिद्ध नहीं है, यह ज्ञान भी स्व और परको बिना किसी अन्य प्रतीति की अपेक्षा किये प्रतिभासित करता है, अतः प्रत्यक्ष है, इसे परोक्ष मानना परोक्षाभास है । इस विषय का खुलासा पहले कर चुके हैं।
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