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प्रमेय कमलमार्तण्डे अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वादिति ॥ २३ ॥ कथमस्याऽसिद्धत्व मित्याह--
स्वरूपेणासिद्धत्वात् इति ।। २४ ।। चक्षुर्ज्ञान ग्राह्यत्वं हि चाक्षुषत्वम्, तच्च स्वरूपेणासत्त्वादसिद्धम् । पौद्गलिकत्वात्तत्सिद्धिः; इत्यप्यपेश लम् ; तदविशेषेप्यनुभूतस्वभावस्यानुपलम्भसम्भवाज्जलकनकादिसंयुक्तानले भासुररूपोष्णस्पर्शवदित्युक्त तत्पौद्गलिकत्वसिद्धिप्रघट्टके ।
पुरुष को जिस हेतुका साध्य के साथ होने वाला अविनाभाव मालूम न हो उसके प्रति हेतु का प्रयोग करना सन्दिग्धासिद्ध हेत्वाभास है ।
"सत्ता च निश्चयश्च सत्तानिश्चयौ, असन्तौ सत्तानिश्चयो यस्य असौ असत सत्तानिश्चयः" इसप्रकार "असत् सत्तानिश्चयः” इस पदका विग्रह करके प्रसिद्ध हेत्वाभास के दो भेद समझ लेने चाहिये ।
अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ।।२३।।
अर्थ-जिसको सत्ता विद्यमान नहीं हो वह असत् सत्ता या स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है, जैसे किसीने अनुमान वाक्य कहा कि-शब्द परिणामी है, क्योंकि वह चाक्षुष है नेत्र द्वारा ग्राह्य है, सो यह अनुमान गलत है, शब्द चाक्षुष नहीं होता, शब्द में चाक्षुष धर्म स्वरूप से ही असिद्ध है, इसी का खुलासा करते हैं
स्वरूपेणासिद्धत्वात् ॥२४।। अर्थ- शब्द को चाक्षुष कहना स्वरूप से ही प्रसिद्ध है। चक्षु सम्बन्धी ज्ञान के द्वारा जो ग्रहण में आता है ऐसे रूप जो नील पीतादि हैं वे चाक्षुष हैं, ऐसा चाक्षुषपना शब्द का स्वरूप नहीं है अत: शब्द को चाक्षुष हेतु से परिणामी सिद्ध करना प्रसिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है। कोई कहे कि-शब्द भी पुद्गल है और चाक्षुष रूपादि धर्म भो पूदगल है अत: पुद्गलपने की अपेक्षा समानता है, तथा शब्द को जब जैन लोग पौदगलिक मानते हैं तब उसमें चाक्षुषपना होना जरूरी है, अतः चाक्षुष हेतु
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