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जय-पराजयव्यवस्था
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सम्पल्लक्षणं 'क्वचिदब्राह्मणे तादृश्येति क्वचित्तु व्रात्येऽत्येति तदभावेपि भावात्' इत्यतिसामान्यम्, तेन योगाद्वक्त रभिप्रेतादर्थात्सद्भतादन्यस्यासद्भतार्थस्य कल्पना सामान्यच्छलम् । तच्चायुक्तम् ; हेतुदोषस्यानैकान्तिकत्वस्यात्रापरेणोद्भावनात् । न चानकान्तिकत्वोद्भावनमेव सामान्यच्छलम् ; 'अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद्घात्' इत्यादेरपि सामान्यच्छलत्वानुषङ्गात् । अत्रापि हि प्रमेयत्वं क्वचिद्घटादावनित्यत्वमेति, प्राकाशादो तदभावेपि भावादत्येतीति । तथाप्यस्यानैकान्तिकत्वेपि प्रकृतेपि तदस्तु विशेषाभावात् । तन्न सामान्यच्छलमप्युपपन्नम् ।
नाप्युपचारच्छलम् । तस्य हि लक्षणम्-"धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थसद्भावप्रतिषेध उपचारच्छलम्"
सदाचार संपन्न विवक्षित अर्थ वाला ब्राह्मणत्व उस प्रकारके किसी ब्राह्मण पुरुष में प्राप्त है, और किसी भ्रष्ट ब्राह्मण में अप्राप्त है अर्थात् विद्याचरणयुक्त ब्राह्मणत्व भ्रष्ट ब्राह्मण में नहीं है, भ्रष्ट ब्राह्मण में तो विद्याचरण का अभाव होने पर भी ब्राह्मणत्व है, अतः यह ब्राह्मणत्व अतिसामान्यरूप है और इस कारण से वक्ता के इच्छित सद्भूत अर्थ को छोड़ अन्य असद्भूत अर्थ की कल्पना की जाती है । इसप्रकार यह सामान्य नामका छल माना है। प्राचार्य कहते हैं कि इसप्रकार का सामान्य छल भी प्रयुक्त है, उपर्युक्त अनुमान में तो प्रतिवादी द्वारा अनेकान्तिक हेत्वाभासरूप दोष दिया जाता है। अर्थात् ब्राह्मणत्व हेतु विद्याचरण संपन्न ब्राह्मण और भ्रष्ट ब्राह्मण दोनों में पाया जाने से अनैकान्तिक दोष युक्त होता है, न कि सामान्य छल रूप । यदि कहा जाय कि "अनैकान्तिक दोष प्रगट करना ही सामान्य छल है" तो यह भी अयुक्त है, इसतरह तो "शब्द अनित्य है, क्योंकि प्रमेय है, जैसे घट' इत्यादि ग्रनुमान वाक्य भी सामान्य छल रूप बन बैठेंगे, क्योंकि इस अनुमान में भी प्रमेयत्व हेतु किसी घट प्रादि में तो अनित्यत्व को प्राप्त होता है और आकाश आदि में अनित्यत्व का प्रभाव होने पर भी प्राप्त होता है, इसतरह प्रमेयत्व हेतु अति सामान्यरूप ही है फिर भी उसे अनैकान्तिक हेत्वाभासरूप माना जाता है तो प्रकृत सामान्य छल के उदाहरण में प्रयुक्त ब्राह्मणत्व भी अनैकान्तिक हेत्वाभासरूप मानना चाहिये उभयत्र कोई विशेषता नहीं है। इसलिये सामान्य छल भी सिद्ध नहीं होता। न उसके निमित्त से वाद में जय आदि की व्यवस्था हो सकती है ।
छल का तीसरा भेद उपचार छल भी प्रयुक्त है। नैयायिक मत के आद्य प्रणेता अपने न्याय सूत्र में इस छल का लक्षण लिखते हैं कि धर्म (स्वभाव) के विकल्प
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