Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
भ्यामन्यत्वा निग्रहस्थानान्तरत्वं स्यात् । पदवत् पौर्वापर्येणा (ण) प्रयुज्यमानानां वाक्यानामप्यनेकधोपलम्भात् ।
"शङ्खः कदल्यां कदली च भेर्यां तस्यां च भेर्यां सुमहविमानम् ।
तच्छङ्खभेरीकदलीविमान मुन्मत्तगङ्गप्रतिमं बभूव ।।" [ ] इत्यादिवत् । यदि पुन। पदनरर्थक्यमेव वाक्यनरर्थक्यं पदसमुदायात्मकत्वात्तस्य ; तहि वर्णनैरर्थक्यमेव पदनरर्थक्यं स्याद्वर्णसमुदायात्मकत्वात्तस्य । वर्णानां सर्वत्र निरर्थकत्वात्पदस्यापि तत्प्रसङ्गश्चेत् ; तहि पदस्यापि निरर्थकत्वात् तत्समुदायात्मनो वाक्यस्यापि नैरर्थक्यानुषङ्गः । पदार्थापेक्षया पदस्यार्थवत्त्वे वर्थािपेक्षया वर्ण
निग्रहस्थान बन बैठेगा, क्योंकि पदों के समान ही पूर्वापररूप से प्रयुक्त वाक्य भी अनेक प्रकार से उपलब्ध होते हैं । देखिये, शंख केला में है और केला नगाड़े में है, उस नगाड़े में अच्छा बड़ा लम्बा चौड़ा विमान है, वे शंख, नगाड़े, केला और विमान जिस देश में गंगा उन्मत्त है उसके समान हो गये । इत्यादि वाक्य पूर्वापर सम्बन्ध बिना प्रयुक्त होते हए देखे जाते ही हैं। यदि कहा जाय कि पद निरर्थकता ही वाक्य निरर्थकता है क्योंकि पद समुदाय ही वाक्य बनता है ? तो फिर वर्ण निरर्थकता ही पद निरर्थकता है क्योंकि वर्ण समुदाय ही पद बनता है, ऐसा मानना चाहिये ।
प्रश्न- वर्णों को सर्वत्र [पद और वाक्य में ] निरर्थक मानेंगे तो पदको भी निरर्थकता का प्रसंग आयेगा ?
उत्तर-तो फिर पद को निरर्थक मानने से उसके समुदाय स्वरूप वाक्य के निरर्थकता भी अवश्य आयेगी।
यदि कहो कि पदकी अर्थकी अपेक्षा पद में अर्थवान्पना है, तो वर्ण को अर्थ की अपेक्षा वर्ग में अर्थवान्पना है ही, जैसे प्रकृति [धातु और लिंग] प्रत्यय [ति, तस् आदि एवं सि, प्रो आदि] प्रादि के वर्ण स्वयं की अपेक्षा अर्थवान होते हैं। अकेली प्रकृति अथवा अकेला प्रत्यय पद नहीं बनता है, और न प्रकृति और प्रत्यय में अनर्थकपना ही है। वर्ण में अभिव्यक्त अर्थ नहीं होता अतः उनको अनर्थक कहते हैं ऐसा कहो तो पद में भी अभिव्यक्त अर्थ नहीं होता इसलिये उसे भी अनर्थक मानना होगा । क्योंकि जिसतरह प्रकृति का अर्थ प्रत्यय द्वारा अभिव्यक्त होता है और प्रत्यय
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