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जय-पराजयव्यवस्था
द्भावनलक्षणस्य पराजयस्यापि निवारयितुमशक्तेः । अथ वचनाधिक्यदोषोद्भावनादेव प्रतिवादिनो जयसिद्धौ साधनाभासोद्भावनमनर्थकम् ; नन्वेवं साधनाभासानुद्भावनात्तस्य पराजयसिद्धौ वचनाधिक्योद्भावनं कथं जयाय प्रकल्प्येत ? अथ वचनाधिक्यं साधनाभासं चोद्भावयतः प्रतिवादिनो जयः ; कथमेवं साधर्म्य वचने वैधर्म्यवचनं तद्रचने वा साधर्म्यवचनं पराजयाय प्रभवेत् ?
कथं चैवं वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्यं न स्यात् ? क्वचिदेकत्रापि पक्षे साधन
बौद्ध -- वचनाधिक्य दोष को प्रगट करने से ही प्रतिवादी का जय सिद्ध हो जाता है अतः साधनाभास दोष को प्रगट करना व्यर्थ है ?
जैन - इसीप्रकार साधनाभास को पराजय सिद्ध होने पर वचनाधिक्य को प्रगट जा सकता है ?
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बौद्ध - अच्छा तो ऐसा माना जाय कि वचनाधिक्य और साधनाभास इन दोनों का उद्भावन - प्रगट करने वाले प्रतिवादी का जय होता है ?
दूसरी बात यह है कि जय का पराजय का कारण उक्त हेतु प्रयोग का न
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प्रगट नहीं करने से उस प्रतिवादी का करना जय का कारण किसप्रकार माना
जैन - तो फिर साधर्म्यवचन अर्थात् अन्वय दृष्टांत के कहने पर वैधर्म्यवचन प्रर्थात् व्यतिरेक दृष्टांत देना श्रापने पराजय का कारण माना है वह किस प्रकार संभव होगा, तथा व्यतिरेक दृष्टांत देने पर पुनः ग्रन्वय दृष्टांत देना भी पराजय का कारण माना है वह भी कैसे सम्भव होगा ? अर्थात् जब यहां आपने स्वीकार कर लिया कि वचनाधिक्य और साधनाभास दोनों को प्रगट करने पर प्रतिवादी का जय होगा सो यह पुनरुक्तता या अधिक बोलना ही होता है और उससे जय होना भी मान लिया है, अतः
पहले आपने जो कहा था कि साधर्म्य दृष्टांत दे चुकने पर पुनः वैधर्म्य दृष्टांत का प्रयोग करे तो पुनरुक्तता या वचनाधिक्य होने से पराजय का कारण है इत्यादि, सो यह कैसे बाधित नहीं होगा ? अवश्य ही होगा क्योंकि एक जगह अधिक वचन प्रयोग को पराजय का हेतु कह रहे हो और दूसरी जगह उक्त प्रयोग को जय का हेतु कह रहे हो ।
कारण सत्य हेतु प्रयोग का ज्ञान है और जानना रूप प्रज्ञान है ऐसा माना जाय तो
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