Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 714
________________ सप्तभंगोविवेचनम् ६७१ प्रतीतिः; त द्विपरीतस्याऽसत: सतो वा प्रत्येतुमशक्तेः। ऋजुसूत्राश्रयणाद्वा पर्यायमात्रस्य प्रस्थादित्वेन प्रतोतिः, अन्यथा प्रतीत्यनुपपत्तेः । शब्दाश्रयणाद्वा कालादिभिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वम्, अन्यथातिप्रसङ्गात् । समभिरूढाश्रयणाद्वा पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वम् ; अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । नय भी प्रस्थकी मापने की जो क्रिया है उस क्रिया में परिणत प्रस्थ को ही प्रस्थपने से स्वीकार करता है, सङ्कल्पस्थित प्रस्थका प्रस्थपना स्वीकार नहीं करता, अन्यथा अतिप्रसंग होगा । इसप्रकार नैगमनय द्वारा गृहीत प्रस्थादि विधिरूप है और अन्य छह नयों में से किसी एक नय का अाश्रय लेनेपर उक्त प्रस्थादि प्रतिषेधरूप है अतः प्रस्थादि स्यादस्ति, प्रस्थादि स्यान्नस्ति, ये दो भंग हुए, तथा क्रम से अर्पित उभयनय की अपेक्षा प्रस्थादि स्याद् उभयरूप है [ अस्तिनास्तिरूप ] युगपत् उभयनय की अपेक्षा स्याद् प्रस्थादि प्रवक्तव्य है । इसीतरह अवक्तव्यरूप शेष तीन भंगों का कथन करना चाहिये । वे इसप्रकार हैं-नगम और अक्रम की अपेक्षा लेने पर प्रस्थादि स्यात् अस्ति अवक्तव्य है। संग्रह आदि में से किसी एक नय की अपेक्षा और अक्रम की अपेक्षा लेने पर प्रस्थादि स्यात् नास्ति प्रवक्तव्य है। नैगम तथा संग्रहादि में से एक एवं अक्रम की अपेक्षा लेने पर प्रस्थादि स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य है। विशेषार्थ-यहां पर श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने सप्तभंगी बनाने के प्रकार सूचित मात्र किये हैं। श्लोकवात्तिक में इसका विस्तृत विवेचन पाया जाता है । वह इसप्रकारनैगमनय की अपेक्षा अस्तित्व कहने पर स्यात् प्रस्थादि अस्ति १ संग्रह की अपेक्षा स्यात् प्रस्थादि नास्ति २ क्रम से उभय की अपेक्षा स्यात् प्रस्थादि अस्ति नास्ति ३ अक्रम की अपेक्षा स्यात् प्रस्थादि प्रवक्तव्यं ४ नैगम और अक्रम की अपेक्षा स्यात् प्रस्थादि अस्ति प्रवक्तव्यं ५ संग्रह और अक्रम की अपेक्षा स्यात् प्रस्थादि नास्ति प्रवक्तव्यं ६ और नैगम और संग्रह तथा अक्रम की अपेक्षा स्यात् प्रस्थादि अस्ति नास्ति प्रवक्तव्यं ७ इसप्रकार नैगमनय विधि को विषय करने पर और उसके साथ संग्रहनय निषेध को विषय करने पर ये सात भंगों वाली एक सप्तभंगी हुई। इसीतरह नैगम से विधि कल्पना कर और व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत से प्रतिषेध की कल्पना कर दो । मूल भंगों को बनाकर शेष पांच क्रम अक्रम आदि से बनाते हुए पांच सप्तभंगियां बना लेना। नैगमनय की संग्रह आदि के साथ छह सप्तभंगियां होती हैं। तथा संग्रहनय की अपेक्षा विधि कल्पना कर और व्यवहारनय की अपेक्षा प्रतिषेध कल्पना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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