Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 719
________________ ६७६ प्रमेयकमलमार्तण्डे न्तरसिद्धितो न कश्चिदुपालम्भः । एतेन द्वितीयतृतीयधर्मयोः कार्पितयोर्धर्मान्तरत्वमप्रातीतिक व्याख्यातम् । कथमेवं प्रथमचतुर्थयोद्वितीयचतुर्थयोस्तृतीयचतुर्थयोश्च सहितयोर्धर्मान्तरत्वं स्यादिति चेत् ? चतुर्थेऽवक्तव्यत्वधर्मे सत्त्वासत्त्वयोरपरामर्शात् । न खलु सहापितयोस्तयोरवक्तव्यशब्देनाभिधानम् । किं तहि ? तथापितयोस्तयो: सर्वथा वक्तुमशक्ते रवक्तव्यत्त्वस्य धर्मान्तरस्य तेन प्रतिपादनमिष्यते । न च तेन सहितस्य सत्त्वस्यासत्त्वस्योभयस्य वाऽप्रतीतिर्धर्मान्तरत्वासिद्धिर्वा; प्रथमे भंगे सत्त्वस्य प्रधानभावेन प्रतीतेः, द्वितीये त्वसत्त्वस्य, तृतीये क्रमापितयोः सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थे त्ववक्त संभावित किया जाय अर्थात् उस मनुष्य पर्यायभूत वस्तु से अन्य जो देवादिपर्यायभूत वस्तु है उसके स्वद्रव्यादि की अपेक्षा दूसरा सत्त्व पर्याय विशेष के आदेश से संभावित किया जाय तो उस द्वितीय सत्त्व के प्रतिपक्षभूत जो असत्त्व है वह भी दुसरा संभावित होगा और इसतरह एक अपर धर्मवाली न्यारी सप्तभंगी सिद्ध हो जायगी, इसप्रकार की सप्तभंगान्तर मानने में तो कोई दोष या उलाहना नहीं है । जैसे प्रथम और तृतीय धर्म को धर्मान्तरपना सिद्ध नहीं होता और न सप्तभंग से अधिक भंग सिद्ध होत हैं वैसे हो द्वितीय और तृतीय धर्म को क्रम से अर्पित करने में धर्मान्तरपना सिद्ध नहीं होता ऐसा निश्चय करना चाहिए। शंका-यदि उक्त रीत्या धर्मान्तरपना सम्भव नहीं है तो प्रथम के साथ चतर्थ का संयोग करने पर स्यात् अस्ति वक्तव्य एवं द्वितीय के साथ चतुर्थ का संयोग कर स्यात् नास्ति प्रवक्तव्य, तृतीय के साथ चतुर्थ का संयोग कर स्यात् अस्ति नास्ति प्रवक्तव्य को धर्मान्तरपना कैसे माना जा सकता है ? समाधान-प्रवक्तव्य नाम के चौथे धर्म में सत्त्व और असत्त्व का परामर्श नहीं होने से उक्त धर्मान्तरपना बन जाता है। युगपत् अर्पित उन सत्त्व असत्त्व का प्रवक्तव्य शब्द द्वारा कथन नहीं होता अपितु उक्त रीति से अर्पित हुए उन सत्त्व असत्त्व को सर्वथा कहना अशक्य है इस रूप अवक्तव्य नामा जो धर्मान्तर है उसका प्रवक्तव्य शब्द द्वारा प्रतिपादन होता है । उस अवक्तव्य सहित सत्त्व की या असत्त्व अथवा उभय की प्रतीति नहीं होती हो अथवा यह अवक्तव्य पृथक् धर्मरूप सिद्धि नहीं होता हो सो भी बात नहीं है । देखिये-प्रथम भंग में [ स्यात् अस्ति ] सत्त्व प्रधान भाव से प्रतीत होता है, द्वितीय भंग में [ स्यात् नास्ति ] असत्व प्रधान भाव से प्रतीत होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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