Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 733
________________ ६६० प्रमेयकमलमार्तण्डे शैट्स्यत :-या समुद्रादिति यावत् । निपूर्व इष् इत्ययं धातुर्गत्यर्थः परिगृह्यते-“इष् गतिहिंसनयोश्च" ] इति वचनात् । नीषते गच्छतीति नीट, न नीडऽनीट् । तस्मात्स्वाथिके के प्रत्ययेऽनीट्क इति भवति । प्रचलो गिरिनिकर इत्यर्थः। यदि वा अं विष्णु नीषति गच्छति समाश्रयतीत्यनीड्=भुवनस निवेश: तदुक्तम् "युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकासमासते । तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विषस्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मुदः ।।" [शिशुपालव० ११२३ ] न विद्यते ना समवायिकारणभूतो यस्यासावऽना, "ऋणमोः" (मोः) [जैनेन्द्रव्या० ४।२। १५३] इति कप् सान्तो न भवति "सान्तो विधिर नित्यः" [ ] इति परिभाषाश्रयणात् । इनो भानुः । लषणं लट् कान्ति:-"लष् कान्तौ" [ ] इति वचनात् । लषा युक् योगो यस्यासौ लड्य क्-चन्द्रः । इनश्च लड्युक् चेनलड्युक् सूर्याचन्द्रमसौ । कुल मिव कुलं सजातीयारम्भकावयवसमूहः । तस्मादुद्भव प्रात्मलाभो यस्यासौ कुलोद्भवः पृथिव्यादिकार्यद्रव्यसमूहः । 'वा' इत्यनुक्तसमुच्चये, तेनानित्यस्य गुणस्य कर्मणश्च ग्रहणम् । एषः प्रतीयमान।। अतो नाश्रयासिद्धिः । अद्भयो हितोऽप्यः-समुद्रादिः । निशाया: कर्म नैश्यमन्धकारादि । ताप प्रोष्ण्यम् । स्तनतीति स्तन् मेघः । स्यतः हुया उसका अर्थ समुद्र तक ऐसा हुअा। निपूर्वक इष् धातु गति और हिंसा अर्थ में है नीषते इति नीट, न नीट अनीट उसमें स्वार्थिक क प्रत्यय अनीटक बना । उसका अर्थ पर्वत समूह है। अथवा अमायने विष्णु का आश्रय लेवे वह अनीट अर्थात् भुवन रचना । यह भुवन रचना विष्णु के आश्रय से होती है । इसका प्रमाण शिशुपाल वध पुस्तक में है-युगान्तकाल में संहृत किया है अपनेको जिसने ऐसे नारायण के [विष्णु] जिस शरीर में जगत् विकास युक्त होकर रहता है उस शरीर में नारद के आगमन से उत्पन्न हुअा हर्ष समाया नहीं ।।१।। न विद्यते ना समवायिकारणभूतः यस्य असौ अना, समवायिकारण नहीं है जिसके । इन-सूर्य, लट्-कांति । लट् से युक्त हो वह लट्युक् अर्थात चन्द्र । इनका समास होने पर इन लड्युक हुआ इसका अर्थ सूर्य चन्द्र है । सजातीय आरंभक अवयवों के समूह कुल कहलाता है। उससे उत्पत्ति है जिसके वह कुलोद्भव है अर्थात् पृथ्वी आदि कार्य द्रव्यों का समूह । वा शब्द अनुक्त का समुच्चय करता है उससे गुण और क्रम पदार्थ का ग्रहण हुमा । एषः पद प्रतीतिका सूचक है इससे हेतु का आश्रयासिद्ध दोष दूर होता है। प्राप्यः पद समुद्रादि का सूचक है । नैश्य पद से अंधकार लेना। ताप से उष्णता, स्तन् पद से मेघ लेना, इन सबका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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