Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 732
________________ पत्रविचार: जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कश्विद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।।" [ सौन्दरनन्द १६ | २८, २६] अत्राह - नानन्तरेति । प्रन्तो विनाशस्तं राति पुरुषाय ददातीत्यन्तरा । नान्तरोऽनन्तरः पुरुषस्य विनाशदायको नेत्यर्थः । अनन्तरश्चासावनर्थाथं प्र स्वापश्चानन्तराऽनर्थार्थप्रस्वापः । नेति निपात। प्रतिषेधवाची । नानन्तरानर्थार्थप्रस्वापो लौकिको निद्राकृतः स्वाप इत्यर्थः । तं कृन्तति छिनत्तीति नानन्तरानर्थार्थप्रस्वापकृत् - 'प्रबोधकारीन्द्रियादिकारणकलाप:' इति यावत् । शिषु इत्ययं धातुभौवा - दिक: सेचनार्थ:, "जिषु डिषु शिषु विषु उक्ष पृषु वृषु सेचने" [ ] इत्यभिधानात् । तस्माच्छेषणं भावे घञ कृते 'शेष:' इति भवति । तस्मात्स्वार्थिकेऽणि कृते 'शेष:' इति जायते । शैषं करोति "तत्करोति तदाचष्ट े, तेनातिक्रामति धुरूपं च" [ ] इति णिचि कृते टेः खे च कृते शैषीति भवति । " तदन्ता धव:" [ जैनेन्द्रव्या० २1१1३६] इति धुसंज्ञायां सत्यां " प्रागधोस्ते " [ जैनेन्द्रव्या० १।२।१४८ ] इत्याङा योग: । श्राशैषयति समन्ताद्भुवः सेकं करोतीति क्विपि तस्य च सर्वापहारेण लोपे डत्वे च कृते आशैडिति भवति । प्राशैर् चासौ स्यच्चाशैट्स्यत् लोकप्रसिद्धः समुद्रः । तस्मादा ६८६ विदिशा में जाता है, केवल तैल के क्षय से शांत ही होता है, वैसे ही जीव निर्वृत्ति को प्राप्त हुआ न पृथ्वी में जाता है न आकाश में जाता है, न दिशा में न विदिशा में जाता है केवल क्लेश के क्षय होने से शांति को प्राप्त होता है ||२८|२६|| Jain Education International समाधान - इस प्रसंग को दूर करने हेतु ही "नानन्तराः " विशेषरण दिया है । आगे इसी को बताते हैं - प्रन्त मायने विनाश उसको जो पुरुष के लिये देवे वह अन्तर है न अन्तरः अनन्तरः अर्थात् पुरुष का विनाशदायक नहीं है. इस अनन्तर और अनर्थार्थ प्रस्वाप का कर्मधारय समाप्त हुआ है । इसमें प्रथम ना निषेध वाचक निपात जुड़ा है, इसका अर्थ लौकिक निद्राकृत स्वाप है, उसको छेदे सो नानन्तरानर्थार्थप्रस्वापकृत् है अर्थात् प्रबोध करने वाले इन्द्रियादि कारणों का कलाप । शिषु धातु श्वादिगण सेचन वाला है, जिषु डिषु शिषु विषु उक्ष पृषु वृषु सेचने ये धातुये सींचना अर्थ में हैं । शिषु धातु में छञ् प्रत्यय से शेषः बना पुनः स्वार्थिक अणु से शेषः बना । फिर उसमें करने या कहने अर्थ में णिच् प्रत्यय एवं टि का लोप करने पर शैषी बना । पुनः धातु संज्ञा करके ग्राङ जोड़ा, प्राशैषयति-सब ओर से पृथ्वी का सेच करने अर्थ में क्विप् प्रत्यय प्राकर लुप्त हुआ एवं ष कोड हुआ प्राशैड् | इसके साथ स्यत का समास प्राशैट् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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