Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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पत्रविचार:
६६७
श्रथ ततः प्रतीयमानत्वाविशेषेपि यस्तेनेष्यते स एव तदर्थो नान्यः, ननु शब्दः प्रमाणम्, श्रप्रमाणं वा ? प्रमाणं चेत्; तर्हि तेन यावानर्थः प्रदर्श्यते स सर्वोपि तदर्थं एव । न खलु चक्षुषानेकस्मिन्नर्थे घटादिके प्रदर्श्यमाने 'तद्वता य इष्यते स एव तदर्थो नान्यः' इति युक्तम् । प्रथाप्रमाणम् ; तर्हि तेनेष्यमाणोपि नार्थः । न हि द्विचन्द्रादिकस्तद्दर्शिनेष्यमाणोर्थो भवितुमर्हति अन्यथा परेणेष्यमाणोप्यर्थो किं न स्यात् । तन्नायमपि पक्षो युक्तः ।
ततो यः प्रतीयते तद्दातुश्चेतसि च वर्तते स तदर्थः ; इत्यत्रापिकेनेदमवगम्यताम् वादिना, प्रतिवादिना प्राश्निकैर्वा ? तत्राद्यविकल्पे प्रतिवादिना वादिमनोर्थानुकूल्येन पत्र व्याख्याते वादिना तथावधारितेपि सवैयात्याद्यदेवं वदति 'नायमस्यार्थो मम चेतस्यन्यस्य वर्त्तनात्, विपरीत प्रतिपत्तेनिगृहीतोसि' इति तदा किं कर्तव्यं प्राश्निकैः ? तथाभ्युपगमश्चेत्; महामध्यस्थास्ते यत्सदर्थप्रतिपाद
समाधान — ग्रच्छा बताइये कि शब्द प्रमाण है कि अप्रमाण है ? प्रमाण है तो उस शब्द द्वारा जितना अर्थ दिखाया जाता है वह सब उस शब्द का अर्थ ही कहलायेगा । नेत्र द्वारा अनेक घट प्रादि अर्थ के दिखाये जाने पर उस नेत्रवान् मनुष्य द्वारा जो पदार्थ इष्ट होता है वही उस नेत्र का अर्थ [ विषय ] है अन्य नहीं है ऐसा तो कहा नहीं जा सकता है । यदि शब्द को श्रप्रमाण माना जाय तो वादी द्वारा इष्ट अर्थ भी वास्तविक अर्थ नहीं कहा जा सकता । नेत्र रोगी एक ही चन्द्र को दो चन्द्र रूप देखता है सो उस दर्शक पुरुष द्वारा इष्ट किया जो दो चन्द्र ग्रर्थ है वह अर्थभूत नहीं हो सकता अन्यथा प्रतिवादी द्वारा ग्रहण किया गया पत्र का अर्थ भी अर्थभूत क्यों नहीं होगा ? इसतरह शब्द से जो अर्थ प्रतीत होता है वही पत्र का अर्थ है ऐसा कथन भी परवादी के यहां सिद्ध नहीं हो पाता ।
पत्र से जो प्रतीत होता है और पत्रदाता के चित्त में जो रहता है वह पत्र का अर्थ है ऐसा तृतीय पक्ष माने तो इस बात को कौन ज्ञात करेगा वादी या प्रतिवादी अथवा प्राश्निक पुरुष ? वादी द्वारा उक्त बात जानी जाती है ऐसा माने तो वादी के चित्त स्थित अर्थ के अनुकूलता से प्रतिवादो द्वारा पत्र का व्याख्यान कर दिया जाय एवं वादो द्वारा उसका अवधारण [ मन में ] भी हो जाय तो भी कदाचित् धृष्टता से वादी इस तरह कह बैठे कि यह इस पत्र का अर्थ नहीं है मेरे मन में अन्य अर्थ है, तुमने विपरीत अर्थ किया अत: निगृहीत हुए हो, तो प्राश्निक जनों का क्या कर्त्तव्य होगा ? उसके निग्रह को स्वीकार करना चाहिए ऐसा कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि
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