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पत्रविचार:
अथवा प्रागुक्तश्चतुरङ्गो वादः पत्रावलम्बनमप्यपेक्षते, अतस्तल्लक्षणमत्रावश्यमभिधातव्यम् यतो नास्याऽविज्ञातस्वरूपस्यावलम्बनं जयाय प्रभवतीति ब्रुवाणं प्रति सम्भवदित्याह । सम्भवद्विद्यमानमन्यत् पत्रलक्षणं विचारणीयं तद्विचारचतुरैः । तथाहि -स्वाभिप्रेतार्थसाधनानवद्यगूढपदसमूहात्मकं
पहले जयपराजय प्रकरण में चार अंग [ वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति ] वाला वाद होता है ऐसा कहा था यह वाद कभी पत्र के अवलंबन की अपेक्षा भी रखता है, अत: यहां पर उस पत्र का लक्षण कहना योग्य है, क्योंकि जो पुरुष पत्र के स्वरूप को नहीं जानता वह उसका अवलम्बन लेकर वाद करेगा तो जय प्राप्त करने के लिये समर्थ नहीं होगा । इसप्रकार का प्रश्न होने पर श्री माणिक्यनन्दी ने "संभवदन्यद्विचारणीयम्" यह उत्तर स्वरूप सूत्र रचा है । अर्थात् प्रमाण - प्रमाणाभास का कण्ठोक्त कथन कर देने पर शेष नय आदि का कथन अन्य ग्रन्थों से जानना ऐसा परीक्षामुखसूत्रकार का अभिप्राय है अथवा प्रमाणतदाभासौ ... इत्यादि द्विचरम सूत्र में वाद में होने वाली जय पराजय व्यवस्था कर देने पर पत्र द्वारा होने वाले वाद में पत्र का स्वरूप किस प्रकार का होना चाहिये इस बात को अन्य ग्रन्थ से जानना चाहिये ऐसा सूत्रकार का अभिप्राय है । अब इस अभिप्राय के अनुसार "संभवदन्यद्विचारणीयम् " इस सूत्र का अर्थ करते हैं- संभवद् ग्रर्थात् विद्यमान अन्यद् जो पत्र का
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