Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 727
________________ ६८४ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे पत्रस्य च तद्विपरीताकारत्वात् न च यद्यतोऽन्यत्तत्तेन व्यपदेष्टुं शक्यमतिप्रसङ्गादिति चेत्; 'उपचरितोपचारात्' इति ब्रूमः । 'श्रोत्रपथप्रस्थायिनो हि वर्णात्मकपदसमूहविशेषस्वभाववाक्यस्य लिप्यामुपचारस्तत्रास्य जनैरारोप्यमाणत्वात्, लिप्युपचरितवाक्यस्यापि पत्रे, तत्र लिखितस्य तत्रस्थत्वात्' इत्युपचरितोपचारात्पत्रव्यपदेशः सिद्धः । न च यद्यतोन्यत्तत्तेनोपचारादुपचरितोपचाराद्वा व्यपदेष्टुमशक्यम्, शक्रादन्यत्र व्यवहर्तृ जनाभिप्राये शक्रोपचारोपलम्भात्, तस्माच्चान्यत्र काष्ठादावुपचरितोपचाराच्छक्रव्यपदेशसिद्धेः । अथवा प्रकृतस्य वाक्यस्य मुख्य एव पत्रव्यपदेश: - 'पदानि त्रायन्ते गोप्यन्ते रक्ष्यन्ते परेभ्यः स्वयं विजिगीषुणा यस्मिन्वाक्ये तत्पश्रम्' इति व्युत्पत्तेः । प्रकृतिप्रत्ययादि अक्षर समुदायरूप है ? पत्र तो उससे विपरीत आकार वाला अर्थात् लिपिबद्ध ग्रक्षर समूह [लिखित ग्रक्षर समूह ] वाला होता है जो जिससे अन्य होता है वह उस रूप से कहा नहीं जा सकता अन्यथा अतिप्रसंग होगा ? समाधान — यहां पर उपचरित उपचार द्वारा पत्र का लक्षण कहा गया है वह उपचार इसप्रकार है - कर्ण पथ में प्रस्थान करने वाले वर्णात्मक पद समूह स्वभाव वाले वाक्य का लिपि में उपचार किया जाता है क्योंकि वहां पर स्थित जनों द्वारा उसका मारोप किया जा रहा है, तथा लिपि में उपचरित वाक्य का पत्र में आरोप किया जाता है, उस पत्र में लिखित वाक्य का वहां पर स्थितपना होने से, ऐसे उपचरित उपचार से वाक्य को पत्र कहा जा सकता है भावार्थ यह है कि वाक्य तो सुनायी देने वाले शब्दरूप है और पत्र कागज आदि पर लिपिबद्ध हुए शब्द है अत: वाक्य को पत्र कैसे कहा ऐसी शंका थी उसका समाधान किया कि उपचार करके ऐसा कहा जाना संभव है । जो जिससे अन्य है वह उसके द्वारा उपचार से या उपचरित उपचार से कहा नहीं जाता हो सो बात नहीं है, देखा जाता है कि व्यवहारीजन इन्द्र से अन्य किसी व्यक्ति में इन्द्र का उपचार कर उसे इन्द्र कहते हैं [ जैसे पूजा प्रतिष्ठा आदि के समय मनुष्य को हो मुकुट आदि पहनाकर इन्द्र नाम से पुकारा जाता है ] तथा उस उपचार रूप इन्द्र से अन्य जो काष्ठ आदि है उसमें उपचरित उपचार से इन्द्र संज्ञा करते हैं । अथवा पत्र इस पद का अर्थ अन्य प्रकार से संभव है अतः उपचरित उपचार न करके मुख्य रूप से भी वाक्य को पत्र कहा जा सकता है - "पदानि त्रायन्ते गोप्यन्ते रक्ष्यन्ते परेभ्यः स्वयं विजिगीषुणा यस्मिन् वाक्ये तत् पत्रम्" प मायने पदों की मायने रक्षा करना प्रर्थात् परवादी से अपने पदों को जिसमें गुप्त रखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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