Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 688
________________ जय-पराजयव्यवस्था नाटकादिघोष रातोप्यस्य निग्रहो न स्यात्; सत्यमेवैतत्; स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोपि दोषाभावाल्लोकवत् । श्रन्यथा ताम्बूल भक्षण क्षेपखात्कृ ताकम्पहस्तास्फालनादिभ्यो पिसत्यसाधनवादिनो निग्रहः स्वात् । अथ स्वपक्षमप्रसाधयतोस्य निग्रहः; नन्वत्रापि किं प्रतिवादिना स्वपक्षे साधिते वादिनो वचनाधिक्योपलम्भान्निग्रहो लक्ष्येत, असाधिते वा ? प्रथमविकल्पे स्वपक्षसिद्ध्यैवास्य निग्रहाद्वचनाधिक्योद्भावनमनर्थकम् तस्मिन् सत्यपि स्वपक्षसिद्धिमन्तरेण जयायोगात् । द्वितीयपक्षे तु युगपद्वादिप्रतिवादिनो पराजयप्रसंगो जयप्रसंगो वा स्यात्स्वपक्षसिद्धेरभावाविशेषात् । ननु न स्वपक्षसिद्ध्यसिद्धिनिबन्धनौ जयपराजयौ तयोर्ज्ञानाज्ञाननिबन्धनत्वात् । साधनवादिना बौद्ध - साध्यसिद्धि में प्रतिबंधक किन्तु पुनरुक्त ऐसे वचन को निग्रहरूप न माना जाय तो वादी नाटक या घोषणा आदि कर बैठे तो उससे भी उसका निगृह नहीं कर सकेंगे ? ६४५ जैन - ठीक ही तो है, अपने साध्य को सिद्ध करके पीछे नृत्य भी करे तो कोई दोष नहीं है, लोक में ऐसा ही देखा गया है । यदि ऐसा न माने तो सत्य साधन प्रयुक्त करने वाले वादी का तांबूल भक्षण करना, भौ चढ़ाना, खकारना, हाथ हिलाना, ताली ठोकना आदि को करने से भी निग्रह मानना होगा । दूसरा विकल्प - स्वपक्ष को सिद्ध न करके पुनरुक्तरूप कथन करने से वादी का निग्रह होता है, ऐसा माने तो इसमें पुनः प्रश्न है कि वादी के पुनरुक्त प्रतिपादन करने पर प्रतिवादी द्वारा उसका जो निज पक्ष है उसको साधने पर वादी के पुनरुक्तरूप वचनाधिक्य से निगृह किया जाता है या उसके निज पक्ष के साधे बिना ही निग्रह किया जाता है ? प्रथम विकल्प कहो तो प्रतिवादी के निज पक्ष की सिद्धि से हो निगृह हुआ, वचनाधिक्य दोष का प्रकाशन तो व्यर्थ ही है, क्योंकि वचनाधिक्य दोष प्रगट कर देने पर भी स्वपक्ष की सिद्धि किये बिना जय होना शक्य है । दूसरा विकल्प वादी ने अधिक वचन कहा और प्रतिवादी ने स्वपक्ष को सिद्ध किया नहीं केवल वचनाधिक्य दोष उठाकर निग्रह किया, सो ऐसा माने तो एक साथ वादी प्रतिवादी दोनों के जय या पराजय का प्रसंग आ धमकेगा, क्योंकि दोनों के भी अपने निजपक्ष की सिद्धि नहीं हुई है, इसमें दोनों समान हैं । बौद्ध-- स्वपक्ष सिद्धि जय का और स्वपक्ष की प्रसिद्धि पराजय का कारण नहीं है, जय र पराजय का कारण तो क्रमश: ज्ञान और प्रज्ञान है । साधनवादी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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