________________
जय-पराजयव्यवस्था
६५५
प्रमाण वाक्य कहा, पुनः प्रतिवादी ने उस प्रमाण वाक्य में दोष दिया, पश्चात् वादी ने उस दोष का परिहार किया। ऐसी दशा में वादी का हेतु स्वपक्ष साधक होता हुआ जय का प्रयोजक है और प्रतिवादी का कथन दूषणरूप होता हुआ पराजय का नियामक है । तथा वादी ने हेत्वाभास का प्रयोग किया, प्रतिवादी ने उसके ऊपर असिद्ध मादि हेत्वाभासों को उठा दिया। यदि वादी उन दोषों का परिहार नहीं करता है तो ऐसी दशा में वादी का उक्त हेतु हेत्वाभास होता हुआ पराजय का व्यवस्थापक है और स्वपक्ष सिद्धि को करते हुए प्रतिवादी का दुषण उठाना जयदायक है । स्वपक्ष की सिद्धि करना नितांत आवश्यक है उसके बिना जय नहीं हो सकता है । इसप्रकार इस प्रकरण में आचार्य ने जय पराजय को व्यवस्था निश्चित की है ।
।। जय पराजयव्यवस्था प्रकरण का सारांश समाप्त ।।
Tamaya
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org