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प्रमेयकमलमार्तण्डे
कालादिशब्दत्वात् तथाविधान्य शब्दवत् । नन्वेवं लोकव्यवहारविरोध : स्यादिति चेत् ; विरुध्यतामसी तत्त्वं तु मीमांस्यते, न हि भेषजमातुरेच्छानुवति ।
नानार्थान्समेत्याभिमुख्येन रूढ : समभिरूढः । शब्दनयो हि पर्यायशब्दभेदान्नार्थभेदमभिप्रेति कालादिभेदत एवार्थभेदाभिप्रायात् । अयं तु पर्यायभेदेनाप्यर्थभेदमभिप्रेति । तथा हि-'इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः' इत्याद्या : शब्दा विभिन्नार्थगोचरा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवदिति ।
एवमित्थं विवक्षितक्रियापरिणामप्रकारेण भूतं परिणतमर्थ योभिप्रेति स एवम्भूतो नयः ।
पर कोई शंका करे कि इसतरह माने तो लोक व्यवहार में विरोध होगा? सो विरोध होने दो यहां तो तत्त्व का विचार किया जा रहा है, तत्त्व व्यवस्था कोई लोकानुसार नहीं होती, यथा औषधि रोगी की इच्छानुसार नहीं होती है ।
समभिरूढनय का लक्षण-नाना अर्थों का प्राश्रय लेकर मुख्यता से रूढ होना अर्थात् पर्यायभेद से पदार्थ में नानापन स्वीकारना समभिरूढनय कहलाता है। शब्दनय पर्यायवाची शब्दों के भिन्न होने पर भी पदार्थ में भेद नहीं मानता, वह तो काल कारक आदि का भेद होने पर ही पदार्थ में भेद करता है किन्तु यह समभिरूढ नय पर्यायवाची शब्द के भिन्न होने पर भी अर्थ में भेद करता है। इसी को बताते हैंइन्द्रः शक्रः पुरंदरः इत्यादि शब्द हैं इनमें लिंगादि का भेद न होने से अर्थात् एक पुलिंग स्वरूप होने से शब्दनय की अपेक्षा भेद नहीं है ये सब एकार्थवाची हैं । किन्तु समभिरूढ नय उक्त शब्द विभिन्न होने से उनका अर्थ भी विभिन्न स्वीकारता है जैसे कि वाजी और वारण ये दो शब्द होने से इनका अर्थ क्रमशः अश्व और हाथी है । मतलब यह है कि इस नय की दृष्टि में पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते । एक पदार्थ को अनेक नामों द्वारा कहना अशक्य है, यह तो जितने शब्द हैं उतने ही भिन्न अर्थवान् पदार्थ स्वीकार करेगा, शक्र और इन्द्र एक पदार्थ के वाचक नहीं हैं अपितु शकनात् शक्रः जो समर्थ है वह शक्र है एवं इन्दनात् इन्द्रः जो ऐश्वर्य युक्त है वह इन्द्र है ऐसा प्रत्येक पद का भिन्न ही अर्थ है इसतरह समभिरूढनय का अभिप्राय है ।
एवंभूतनय का लक्षण-एवं-इसप्रकार विवक्षितक्रिया परिणाम के प्रकार से भूतं-परिणत हुए अर्थ को जो इष्ट करे अर्थात् क्रिया का आश्रय लेकर भेद स्थापित
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