Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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नयविवेचनम्
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कालकारक लिङ्गसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नया शब्दप्रधानत्वात् । ततोऽपास्तं वैयाकरणानां मतम् । ते हि " धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः " [ पाणिनिव्या० ३।४।१ ] इति सूत्रमारभ्य 'विश्वश्वाऽस्य पुत्रो भविता' इत्यत्र कालभेदेप्येकं पदार्थमाहता: - 'यो विश्वं द्रक्ष्यति सोस्य पुत्रो भविता' इति, भविष्यत्काले नातीतकालस्याऽभेदाभिधानात् तथा व्यवहारोपलम्भात् । तच्चानुपपन्नम् ; कालभेदेप्यर्थस्याऽभेदेऽतिप्रसंगात्, रावणशङ्खचक्रवर्ति शब्दयोरप्यतीतानागतार्थगोचरयोरेकार्थतापत्तेः । अथानयोभिन्नविषयत्वानेकार्थता; 'विश्वदृश्वा भविता' इत्यनयोरप्यसौ मा भूत्तत एव । न खलु 'विश्वं दृष्टवान् = विश्वदृश्वा' इति शब्दस्य योऽर्थोतीतकालः, स 'भविता' इति शब्दस्यानागतकालो युक्तः; पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । प्रतीतकाल स्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थत्वे तु न परमार्थतः कालभेदेप्यभिन्नार्थव्यवस्था स्यात् ।
शब्दनय का लक्षण - -काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह के भेद से जो भिन्न अर्थ को कहता है वह शब्दनय है, इसमें शब्द ही प्रधान है । इस नय से शब्द भेद से अर्थभेद नहीं करने वाले वैयाकरणों के मतका निरसन होता है वैयाकरण पंडित " धातुसंबंधे प्रत्ययाः " इस व्याकरण सूत्र का प्रारंभ कर “विश्व दृश्वा अस्य पुत्रो भविता" जिसने विश्व को देख लिया है ऐसा पुत्र इसके होगा, इसतरह काल भेद में भी एक पदार्थ मानते हैं जो विश्व को देख चुका है वह इसके पुत्र होगा, ऐसा जो कहा इसमें भविष्यत् काल से प्रतीतकाल का अभेद कर दिया है, उस प्रकार का व्यवहार उपलब्ध होता है, किन्तु शब्दनय से यह प्रयुक्त है काल भेद होते हुए भी यदि अर्थ में भेद न माना जाय तो अतिप्रसंग होगा, फिर तो अतीत और अनागत अर्थ के गोचर हो रहे रावण और शंखचक्रवर्ती शब्दों के भी एकार्थपना प्राप्त होगा । यदि कहा जाय कि रावण और शंखचक्रवर्ती ये दो शब्द भिन्न भिन्न विषय वाले हैं अतः उनमें एकार्थपना नहीं हो सकता तो विश्वदृश्वा और भविता इन दो शब्दों में एकार्थपना मत होवे । क्योंकि ये दो शब्द भी भिन्न भिन्न विषय वाले हैं। देखिये "विश्वं दृष्टवान् इति विश्वदृश्वा " ऐसा विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ प्रतीत काल है वह "भविता" इस शब्द का अनागतकाल मानना युक्त नहीं है जब पुत्र होना भावी है तब उसमें प्रतीतपना कैसे हो सकता है । अतीतकाल का अनागत में अध्यारोप करने से एकार्थपना बन जाता है ऐसा कहो तो काल भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ की व्यवस्था मानना पारमार्थिक नहीं रहा, काल्पनिक ही रहा ।
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