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प्रमेयकमलमार्तण्डे
सामर्थ्यज्ञानाज्ञानयोः सम्भवात् । न खलु शब्दादौ नित्यत्वस्यानित्यत्वस्य वा परीक्षायाम् एकस्य साधनसामर्थ्य ज्ञानमन्यस्य चाज्ञानं जयस्य पराजयस्य वा निबन्धनं न सम्भवति । युगपत्साधनसामर्थ्यस्य ज्ञानेन वादिप्रतिवादिनोः कस्य जय : पराजयो वा स्यात्तदविशेषात् ? न कस्यचिदिति चेत्; तहि साधनवादिनो वचनाधिक्यकारिणः साधनसामर्थ्याऽज्ञानसिद्ध : प्रतिवादिनश्च वचनाधिक्यदोषोद्भावनात्तद्दोषमात्रे ज्ञानसिद्धर्न कस्यचिज्जयः पराजयो वा स्यात् । न हि यो यद्दोषं वेत्ति स तद्गुणमपि, कुतश्चिन्मारणशक्तिवेदनेपि विषद्रव्यस्य कुष्ठापनयनशक्तौ संवेदनानुदयात् । तन्न तत्सामर्थ्यज्ञानाज्ञाननिबन्ध नौ जयपराजयौ शक्यव्यवस्थौ यथोक्तदोषानुषंगात् । स्वपक्षसिद्ध्यसिद्धिनिबन्धनौ तु तो
वादी का पक्ष ग्रहण करना और प्रतिवादी का प्रतिपक्ष ग्रहण करना भी व्यर्थ कैसे नहीं होगा ? क्योंकि किसी एक के पक्ष ग्रहण पर भी हेतु के सामर्थ्य का ज्ञान और अज्ञान होना सम्भव है ? दूसरे प्रतिपक्ष को काहे को ग्रहण किया जाय ? देखिये शब्द आदि पदार्थ में जब नित्यत्व या अनित्यत्व की परीक्षा की जाती है तब एक के [वादी के] साधन के सामर्थ्य के विषय में ज्ञात है वह और उनके [प्रतिवादो के] उक्त विषय में अज्ञात है वह जय या पराजय का निमित्त नहीं होता हो सो बात नहीं है, अर्थात् एक ही विषय में किसी को ज्ञान और किसी को अज्ञान होना सम्भव ही है। दूसरी बात यह है कि एक साथ वादी और प्रतिवादी दोनों को साधन के सामर्थ्य का ज्ञान भी हो जाय तो उस समय उस ज्ञान के द्वारा दोनों में से किसका जय और किसका पराजय माना जायगा ? क्योंकि वादी प्रतिवादी दोनों में ज्ञान समान है कोई विशेषता नहीं है । तुम कहो कि उस समय किसी का भी जय या पराजय नहीं होगा, तो फिर अधिक वचन को कहने वाला जो साधनवादी है उसके साधन के सामर्थ्य के विषय में अज्ञान सिद्ध होता है क्योंकि उसने अधिक वचन कहा है, तथा प्रतिवादी उक्त वचनाधिक्य दोष को प्रगट करता है उससे दोष के विषयमात्र में उसका ज्ञान सिद्ध होता है, इस प्रकार के प्रसंग में किसी का जय या पराजय नहीं हो सकेगा। क्योंकि जो जिस व्यक्ति के दोष को जानता है वह उस व्यक्ति के गुण को भी जानता हो ऐसा नियम नहीं है, देखा भी जाता है कि किसी निमित्त से विषके मारक शक्ति को [दोष को ज्ञात कर लेने पर भी उसके कुष्ठरोग को दूर करने की शक्ति को [गुणको] ज्ञात नहीं कर पाते । इस प्रकार निश्चित होता है कि साधन के सामर्थ्य के विषय में ज्ञान होने से जय की और उक्त विषय में अज्ञान होने से पराजय की व्यवस्था करना शक्य नहीं है, ऐसी व्यवस्था मानने में उक्त दोष आते हैं। जय और पराजय की
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