Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 694
________________ ६५१ मध्येऽन्यतमस्याप्यनभिधाने न्यूनताख्यो दोषोनुषज्यत एव । " हीनमन्यतमेनापि न्यूनम्" [ न्यायसू० ५।२।१२] इति वचनात् । ततो जयेतरव्यवस्थायाः 'प्रमाणतदाभासो' इत्यादितो नान्यनिबन्धनं व्यवतिष्ठते, इत्येतच्छलादो तन्निबन्धनत्वेनाग्रहग्रहं परित्यज्य विचारकभावमादायाऽमलमनसि प्रामाणिकाः स्वयमेव सम्प्रधारयन्तु कृतमतिप्रसंगेन । जय-पराजयव्यवस्था कहना, इत्यादि अनेक कारणों से निग्रहस्थान ग्रादि दोष आते हैं और उनसे जय पराजय की व्यवस्था हो जाती है अर्थात् वादी ने सदोष हेतु कहा और प्रतिवादी ने उसको सभा में प्रगट करके दिखाया तो वादी का पराजय होवेगा इत्यादि, तथा प्रतिवादी ने वादी के निर्दोष हेतु में भी यदि दोष प्रगट किया और वादी उक्त दोष को दूर नहीं कर सका तो भी वादी का निग्रह होगा । इसमें नैयायिक ने चौबीस जातियां तीन प्रकार का छल और बाईस निग्रहस्थान इसप्रकार के दोष गिनाये हैं और इनके प्रयोक्ता का इनके प्रयोग करने के कारण पराजित होना स्वीकारा है, इन्हीं जाति छल और निग्रहस्थानों का इस जय-पराजय व्यवस्था प्रकरण में विस्तृत विवेचन है । नैयायिक के यहां प्रसदुत्तरं जातिः प्रसत्य उत्तर को जाति कहते हैं, वचनविघातोर्थोपपत्याछलं अर्थ का भेद करके वचन में दोष देना छल है, विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानं - विपरीत या कुत्सित प्रतिपत्ति [ ज्ञान - समझ ] होना एवं पक्ष को स्वीकृत करके भी स्थापित न करना निग्रहस्थान है, इसप्रकार इनका यह अतिसंक्षेप से लक्षण है, इनके भेदों का पृथक् पृथक् लक्षण यथा स्थान मूल में किया है । इन सबका प्राचार्य ने सुयुक्तिक निरसन किया है । प्राचार्य का कहना है कि वादी का कर्तव्य है कि वह निर्दोष अनुमान कहे एवं प्रतिवादी का कर्त्तव्य है कि वह स्वमतानुसार उसमें दोषोद्भावन करे, किन्तु व्याकुलता प्रादि किसी भी कारण से वादी प्रतिवादी ऐसा नहीं करते हैं, छल जाति प्रादिरूप वचन प्रयोग करते हैं या मौन होना आदि चेष्टायें करते हैं तो यह निश्चित है कि उनका तब तक जय नहीं होगा जब तक वे निर्दोष अनुमान प्रयोग कर स्वपक्ष सिद्धि नहीं करते, तथापि उक्त छलादि का प्रयोग करने वाले का उतने मात्र से पराजय कथमपि घोषित नहीं होगा । दूसरी बात यह है कि असत् उत्तररूप जाति जो चौबीस गिनायी हैं वह भी अयुक्त है, जगत् में असत्य उत्तर के चौबीस क्या हजारों लाखों तरीके होते हैं अत: इनकी संख्या निश्चित करना अशक्य है । यही दशा निग्रह स्थानों की है, निग्रहस्थानो में कुछ ऐसे हैं जिनमें अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता । बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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