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जय-पराजयव्यवस्था
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तदेतद्योगकल्पितं जातीनां सामान्यविशेषलक्षणप्रणयनमयुक्तमेव ; साधनाभासेपि साधा. दिना प्रत्यवस्थानस्य जातित्वप्रसङ्गात् । तथेष्टत्वान्न दोषः; तथा हि-प्रसाधी साधने प्रयुक्त यो जातीनां प्रयोगः सोनभिज्ञतया वा साधनदोषस्य स्यात्, तद्दोषप्रदर्शनार्थं वा प्रसङ्गव्याजेन; इत्यप्य. समीचीनम् ; साधनाभासप्रयोगे जातिप्रयोगस्य उद्योतकरेण निराकरणात् ।
जातिवादी च साधनाभासमेतदिति प्रतिपद्यते वा, न वा ? यदि प्रतिपद्यते; तहि य एवास्य साधना भासत्वं हेतुदोषोऽनेन प्रतिपन्न: स एव वक्तव्यो न जाति:, प्रयोजनाभावात् । प्रसङ्गव्याजेन दोषप्रदर्शनार्थं सा; इत्यप्ययुक्तम् ; अनर्थसंशयात् । यदि हि परप्रयुक्तायां जातौ साधनाभासवादी
वायु ] है उसके प्रभाव होने पर भी यदि शब्द की अनुपलब्धि मानी जाय तो फिर शब्द का कभी सद्भाव ही नहीं होगा ।
यह नैयायिक और वैशेषिक द्वारा प्रतिपादित जातियों का लक्षण अयुक्त हैं, इसतरह दोष उपस्थित करना तो साधनाभास [ हेत्वाभास ] में भी है उसमें भी साधादि द्वारा दोष दिया जाता है इसलिये साधनाभास को भी जातिपने का प्रसंग आयेगा।
___ नैयायिक-वैशेषिक-साधनाभास को जाति कहना इष्ट है अत: कोई आपत्ति नहीं । इसीको दिखाते हैं-वादी द्वारा असत् हेतु का प्रयोग करने पर प्रतिवादी जो जातियों का प्रयोग करता है वह हेतु के दोष का ज्ञान न होने से करता है । अथवा उक्त हेतु के दोष दिखाने के लिये जातियों का प्रयोग करता है, या कोई प्रसंग के छल से जाति प्रयोग करता है ।
जैन-यह कथन असमीचीन है । आपके यहां उद्योतकर ग्रन्थकार ने साधनाभास के प्रयुक्त होने पर जाति का प्रयोग करना निषिद्ध किया है।
दूसरी बात यह है कि जातिवादो पूर्व पक्ष रखने वाले वादी के हेतु को "यह हेत्वाभास है" ऐसा जानता है या नहीं जानता ? यदि जानता है तो इस वादी के हेतु में जो असिद्धादि हेतु इसके द्वारा ज्ञात हुआ है उसी दोष को देना चाहिए, जाति दोष को नहीं, जाति दोष उपस्थित करने में कोई प्रयोजन ही नहीं।
योग-कोई प्रसंग देख छल से दोष का प्रदर्शन करने के लिये जाति का प्रयोग होता है।
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