Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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जय-पराजयव्यवस्था
६०७ "शब्दाऽनित्यत्वोक्तो नित्यत्वप्रत्यवस्थितिनित्यसमा जातिः ।" [ न्यायसू० ५।१।३५ ? ] तद्यथा-'अनित्य : शब्दः' इत्युक्त परः प्रत्यवतिष्ठते-शब्दाश्रयमनित्यत्वं किं नित्यम्, अनित्यं वा ? यदि नित्यम् ; तहि शब्दोपि नित्य : स्यात्, अन्यथास्य तदाधारत्वं न स्यात् । अथानित्यम् ; तथाप्ययमेव दोष:-अनित्यत्वस्याऽनित्यत्वे हि शब्दस्य नित्यत्वमेव स्यात् ।
दूषणाभासत्वं चास्याः, प्रकृतसाधनाऽप्रतिबन्धित्वात् । प्रादुर्भूतस्य हि पदार्थस्य प्रध्वंसोऽनित्यत्वमुच्यते, तस्य प्रतिज्ञाने प्रतिषेधविरोधः। स्वयं तदप्रतिज्ञाने च प्रतिषेधो निराश्रय: स्यात् ।
नित्यसमा जाति-शब्द के अनित्यत्व को सिद्ध करने पर प्रतिवादी द्वारा उक्त पक्ष के अनित्य धर्म में नित्यत्व का प्रसंग लाना नित्यसमा जाति है। जैसे शब्द अनित्य है ऐसा कहने पर प्रतिवादी उलाहना देता है कि शब्द के प्राश्रय रहने वाला यह अनित्यधर्म क्या नित्य है अथवा अनित्य ? अर्थात् शब्दरूप पक्ष में साध्य रूप अनित्यधर्म सदावस्थित है अथवा कादाचित्क है ? यदि उक्त धर्म नित्य है तो शब्द भो नित्य सिद्ध होगा, अन्यथा वह उस धर्म का आधार हो नहीं सकता। भावार्थ यह हुआ कि शब्द में अनित्यपन सदा तीनों काल ठहरा हुआ मानोगे तब तो उस अनित्यपने का आधार शब्द भी नित्य हो जायेगा, अपने धर्म को सदाकाल नित्य ठहराने वाला धर्मी नित्य होना ही चाहिए, यदि शब्द को कुछ काल तक ठहरने वाला माने तो सदा ठहरने वाला अनित्यत्व धर्म भला किसके आधार स्थित होगा। दूसरा पक्ष-शब्द के आश्रय रहने वाले अनित्यत्व धर्म को अनित्य माना जाय तो उसमें भी यही दोष है, अर्थात् शब्द में अनित्यत्व धर्म कभी कभी रहता है तो जब वह धर्म न रहेगा तब शब्द में नित्यत्व आ धमकेगा।
यह नित्यसमा जाति भी दूषणाभास है क्योंकि यह प्रकृत साधन का प्रतिबंधक नहीं है । इसीको बतलाते हैं-प्रादुर्भूत पदार्थ के नाश होने को अनित्यत्व कहते हैं, जब प्रकृत अनुमान में अनित्यत्व साध्यरूप स्वीकार कर लिया है तब उसका प्रतिषेध विरुद्ध पड़ता है, और यदि स्वयं ने उसको स्वीकृत नहीं किया हो तो उसका प्रतिषेध निराश्रय है, मतलब यह है कि वादी ने शब्द अनित्य है ऐसा प्रतिज्ञा वाक्य कहा इस पर प्रतिवादी ने जब यह प्रश्न किया कि इस अनित्यत्व साध्यका आश्रय नित्य है या अनित्य ? तब निश्चित होता है कि इसने प्रतिज्ञा को स्वीकार किया है, इस प्रकार प्रतिज्ञा स्वीकृत होने पर उसीका पुनः निषेध तो विरुद्ध ही है। तथा कदाचित
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