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प्रमेयकमलमार्तण्डे हि पूर्वपक्षवादिनस्तद्विशेषविषय : प्रश्नोऽवश्यंभावी 'मया तावदुत्तरमुपन्यस्तमेतच्च कथमनुत्तरम्' इति । जातिवादिना चास्योत्तराप्रतिपत्तिविशेषेणोद्भावनीया 'मयोपन्यस्ताप्येषा जातिस्त्वया न ज्ञाता जात्यन्तरं चोद्भावितम्' इति । अत्र च प्रागुक्ताशेषदोषानुषङ्गः । तदेवमुत्तराऽप्रतिपत्त्युद्भावनत्रयेपि जातिवादिन: पराजयस्यैकान्तिकत्वात् 'ऐकान्तिक.पराजयाद्वरं सन्देहः' इति जानन्नपि जात्यादिकं प्रयुङ क्ते इत्येतद्वचो नैयायिक स्यानैयायिकतामाविर्भावयेत् । तत: स्वपक्षसिद्धय व जयस्तदसिद्ध्या तु पराजयः, न तु मिथ्योत्तरलक्षणजाति शतरपीति ।
नापि निग्रहस्थानः । तेषां हि "विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्" [न्यायसू० १।२।१६]
उत्तर अप्रतिपत्ति मात्र का उद्भावन करने पर पूर्वपक्षवादी उसके विषय में अवश्य ही प्रश्न करेगा कि मैंने तो उत्तर उपस्थित किया है, उसको अनुत्तर कैसे कहते हो ? इसप्रसंग में जातिवादी को तो इसके उत्तर अप्रतिपत्ति का विशेषरूप से उदभावन करना पड़ेगा कि मैंने यह अमुक जाति उपस्थिति की थी तुमने उसे जाना नहीं और अन्य जाति का उद्भावन किया। इसप्रकार के वार्तालाप ने पुनः वही पूर्वोक्त अशेष दोष पाते हैं। इसतरह उत्तर अप्रतिपत्ति के उद्भावन करने के तीन तरीके होनेपर भी जातिवादी का सर्वथा पराजय का प्रसंग दिखाई देता है, और "ऐकान्तिक पराजय से संदेहास्पद रहना श्रेष्ठ है" ऐसा जानते हुए भी जाति आदि प्रयोग किया जाना माने तो यह कथन नैयायिक के अनैयायिकपने को ही प्रगट करता है, अर्थात सर्वथा पराजय का प्रसंग आने की अपेक्षा वाद का विषय संशयित श्रेष्ठ है ऐसा नैयायिक स्वयं स्वीकार करते हैं और सर्वथा पराजय का कारण स्वरूप जाति का प्रयोग भी मान्य करते हैं, यह तो उनके अनैयायिकता [न्याय की अज्ञानता] का द्योतक है । - यहां तक योग विशेष करके नैयायिक द्वारा प्रतिपादित असत् उत्तर स्वरूप चौबीस जातियों का पूर्वपक्ष सहित कथन कर निराकरण कर दिया है। अंत में प्राचार्य कहते हैं कि उपयुक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि जाति प्रयोग से जय पराजय व्यवस्था नहीं होती, अतः अपने पक्ष के सिद्धि से ही जय होता है और स्वपक्ष सिद्ध न होने से पराजय होता है। मिथ्या उत्तररूप सैकड़ों जाति द्वारा भी यह व्यवस्था नहीं हो सकती।
नैयायिक द्वारा प्रतिपादित निग्रहस्थानों द्वारा भी जय पराजय की व्यवस्था सम्भव नहीं है। आगे इन्होका विस्तृत विवेचन करते हैं। उन निग्रहस्थानों का
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