________________
जय-पराजयव्यवस्था
६२५ तदेतदप्यर्थान्तरं निग्रहस्थानं समर्थे साधने दूषणे वा प्रोक्त निग्रहाय कल्प्येत, असमर्थे वा ? न तावत्समर्थे; स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोपि दोषाभावाल्लोकवत् । असमर्थेपि प्रतिवादिनः पक्षसिद्धी तन्निग्रहाय स्यात्, प्रसिद्धौ वा ? प्रथम पक्षे तत्पक्षसिद्ध्यैवास्य निग्रहो न त्वतो निग्रहस्थानात् । द्वितीय पक्षेप्यतो न निग्रहः पक्षसिद्ध रुभयोरप्यभावादिति ।
"वर्णक्रमनिर्देशवन्निरर्थकम् ।" [न्यायसू० ५।२।८] यथाऽनित्यः शब्दो जबगडदश्त्वात् झभघढधष्वत् । इत्यपि सर्वथार्थशून्यत्वान्निग्रहाय कल्प्येत, साध्यानुपयोगाद्वा ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्त:; सर्वथार्थशून्यस्य शब्दस्यैवासम्भवात् । वर्णक्रम निर्देशस्याप्यनुकार्येणार्थनार्थवत्त्वोपपत्त: । द्वितीयविकल्पे तु सर्वमेव निग्रहस्थानं निरर्थकं स्यात् ; साध्यसिद्धावनुपयोगित्वाविशेषात् । केनचिद्विशेष
अर्थान्तर निग्रहस्थान का निरसन-इस निग्रहस्थान के विषय में प्रश्न है कि अर्थान्तर निग्रहस्थान समर्थ साधन या दूषण के कहने पर निग्रह के लिये माना जाता है या असमर्थ साधन वा दूषण कहने पर निग्रह के लिये माना जाता है ? समर्थ साधन या दूषण के प्रयोग में तो निग्रह हो नहीं सकता क्योंकि अपने साध्य को सिद्ध करके दिखा देने के बाद प्रवादी चाहे नृत्य भी करे तो उसमें दोष नहीं है, लोक में भी ऐसा मानते हैं । यदि असमर्थ साधन या दूषण का प्रयोग किया है तो उसमें दो प्रश्न उठते हैं कि प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि होने पर उक्त अर्थान्तर वादी का निग्रह करने वाला माना जाता है या पक्ष के प्रसिद्धि होने पर निग्रह माना जाता है ? प्रथम बात कहो तो प्रतिवादी के पक्ष सिद्ध होने के कारण ही वादी का निग्रह हुअा न कि अर्थान्तर निग्रहस्थान से निग्रह हुआ। दूसरी बात कहो तो उक्त अर्थान्तर से निग्रह हो नहीं सकता, क्योंकि अभी वादी प्रतिवादी दोनों के भी पक्ष की सिद्धि हुई नहीं है।
सातवां निग्रहस्थान-वर्णक्रम निर्देश से (अर्थात अर्थ रहित) शब्दों को कहना निरर्थक नाम का निग्रहस्थान है, जैसे-शब्द अनित्य है जबगडदशवाला होने से झभघढधष के समान इसप्रकार का अनुमान कहना। इसमें जैन का प्रश्न है कि जबगडदशत्व हेतु में प्रयुक्त वर्ण सर्वथा अर्थ शून्य होने से निग्रह माना जाता है, या साध्य में अनुपयोगी होने से निग्रह माना जाता है ? प्रथम बात अयुक्त है, सर्वथा अर्थशून्य कोई शब्द नहीं होते । वर्णक्रम निर्देश का भी अर्थ बताया जाने पर अर्थवान् ही होते हैं। दूसरी बात कहो तब तो आपके जितने भी निग्रहस्थान हैं वे सबके सब निरर्थक निग्रह स्थान स्वरूप ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि वे साध्य के सिद्धि में समानरूप से अनुपयोगी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org