Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमल मार्तण्डे इत्यप्येतेनैव प्रत्युक्तम् । प्रतिज्ञाहानिवत्तस्याप्यनेकनिमित्तत्वोपपत्तेः । प्रतिज्ञाहानितश्चास्य कथं भेदः पक्षत्यागस्योभयत्राऽविशेषात् ? यथैव हि प्रतिदृष्टान्तधर्मस्य स्वदृष्टान्तेऽभ्यनुज्ञानात्पक्षत्यागस्तथा प्रतिज्ञान्तरादपि । यथा च स्वपक्षसिद्ध्यर्थं प्रतिज्ञान्तरं विधीयते तथा शब्दाऽनित्यत्वसिद्ध्यर्थम्, भ्रान्तिवशात्तद्वच्छब्दोपि नित्योस्त्वित्यभ्यनुज्ञानम् । यथा चाभ्रान्तस्येदं विरुद्ध्यते तथा प्रतिज्ञान्तरमपि। निमित्तभेदाच्च तद्भेदेऽनिष्टनिग्रहस्थानान्तराणामप्यनुषङ्गः स्यात् । तेषां तत्रान्तर्भावे वा प्रतिज्ञान्तरस्यापि प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावः स्यादिति ।
___"प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः प्रतिज्ञाविरोध:" [न्यायसू० ५।२।४] यथा गुणव्यतिरिक्त द्रव्यं रूपादिभ्यो भेदेनानुपलब्धेः । इत्यप्यसुन्दरम् ; यतो हेतुना प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे निरस्ते प्रकारान्तरतः प्रतिज्ञाहानिरेवेयमुक्ता स्यात्, हेतुर्दोषो वात्र विरुद्धतालक्षणः, न प्रतिज्ञादोष इति ।
नैयायिक के इस दूसरे निग्रहस्थान का निरसन भी पूर्वोक्त रीत्या हो जाता है, क्योंकि प्रतिज्ञाहानि के जैसे अनेक निमित्त हैं वैसे इस प्रतिज्ञान्तर के भी अनेक निमित्त संभव हैं। तथा प्रतिज्ञाहानि से प्रतिज्ञान्तर को भिन्न भी कैसे मान सकते हैं, क्योंकि दोनों में भी पक्षत्याग होना समान है, देखिये, प्रतिदृष्टांत के धर्म को अपने दृष्टांत में स्वीकार करने से जैसे पक्ष का त्याग हो जाता है वैसे प्रतिज्ञान्तर से भी पक्ष का त्याग होता है । वादी जिसतरह अपने पक्ष की सिद्धि के लिये प्रतिज्ञान्तर करता है उसतरह शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिये भ्रमवश सामान्य के समान शब्द भी नित्य होवे ऐसा मान बैठता है। जैसे अभ्रान्त व्यक्ति अपने स्वीकृत प्रतिज्ञा की हानि नहीं करता वैसे ही अभ्रान्त पुरुष प्रतिज्ञान्तर भी नहीं करता, मतलब यह है कि अभ्रान्त के तो ऐसा कथन नहीं होता। इसप्रकार प्रतिज्ञाहानि और प्रतिज्ञान्तर ये निग्रहस्थान एक ही हैं भिन्न नहीं हैं। यदि निमित्त के भेद से इन में भेद माने तो आप नैयायिक को अन्य बहुत से अनिष्ट निग्रहस्थान स्वीकार करने होंगे। अन्य निग्रहस्थानों को प्रतिज्ञाहानि आदि में अन्तर्भूत किया जाता है ऐसा कहो तो प्रतिज्ञान्तर का भी प्रतिज्ञाहानि में अन्तर्भाव करना चाहिये । तीसरा निग्रहस्थानप्रतिज्ञा का और हेतु का विरोध होना प्रतिज्ञाविरोधनामा निग्रहस्थान है, जैसे द्रव्य गुणों से भिन्न हुआ करता है क्योंकि रूपादि गुणों को भेदरूप से अनुपलब्धि है ऐसा अनुमान प्रयोग करना, इसमें प्रतिज्ञा में तो कहा द्रव्य गुणों से भिन्न होना है, और हेतु दिया रूपादि गुणों को भेदरूप से अनुपलब्धि है, यह परस्पर विरुद्ध है। किंतु ऐसा
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