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प्रमेयकमलमार्तण्डे
नवकम्बलयोगित्वस्य वा हेतुत्वेनोपादानासिद्ध एव हेतुः । इति स्वपक्षसिद्धी सत्यामेव वादिनो जयः परस्य च पराजयो नान्यथा । तन्न वाक्छलं युक्तम् ।
नापि सामान्यच्छलम् । तस्य हि लक्षणम्-"सम्भवतीर्थस्यातिसामान्ययोगादसद्भतार्थकल्पना सामान्यच्छलम्" [न्यायसू० ११२।१३] इति । तथा हि-'विद्याचरणसम्पत्तिाह्मणे सम्भवेत्' इत्युक्तऽस्य वाक्यस्य विघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्याऽसद्भूतार्थकल्पनया क्रियते । यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसम्पत्सम्भवति व्रात्येपि सम्भवेब्राह्मणत्वस्य तत्रापि सम्भवात् । तदिदं ब्राह्मणत्वं विवक्षितमथं विद्याचरण
प्रकार से भी हेतु सिद्ध है । अथवा हमने नवकंबलत्वात् हेतु में केवल "नवीन कंबल वाला होने से" इस रूप ही अर्थ ग्रहण किया है अत: यह सिद्ध हो है। किन्तु यह सब होने पर भी वादी का जय और प्रतिवादी का पराजय तो वादी के स्वपक्ष की सिद्धि होने पर ही होगा अन्यथा नहीं हो सकता, अर्थात् हेतु को निर्दोष सिद्ध करने मात्र से जय नहीं होता अपितु तदनन्तर स्वपक्ष की सिद्धि होने पर ही होता है। अतः वाक् छल युक्त नहीं है।
भावार्थ-नैयायिक के यहां छल, निग्रह स्थान आदि के द्वारा भी जय पराजय की व्यवस्था स्वीकार की है किन्तु वह असत् व्यवस्था है, सिद्धांत सम्बन्धी वाद की बात तो दूर है किन्तु लौकिक वाद विवाद में भी जब तक स्वपक्ष पुष्ट नहीं होता तब तक विजय नहीं मानी जाती, अतः प्राचार्य कह रहे हैं कि छल के तीन भेदों में से प्रथम भेद जो वाक् छल है उसके द्वारा जय पराजय का निर्णय हो नहीं सकता इसलिये उसका वर्णन करना या वाद में उसको स्वीकारना व्यर्थ है।
सामान्य छल भी युक्त नहीं है। नैयायिक के न्यायसूत्र में सामान्य छल का लक्षण इसप्रकार किया है-संभावित अर्थ की अत्यन्त सामान्यता होने से अन्य प्रसद्भूत अर्थ की कल्पना करना सामान्य छल है आगे इसीको बताते हैं-विद्या और सदाचार रूप संपत्ति ब्राह्मण में सम्भव है, अथवा यह पुरुष विद्या और सदाचार संपन्न है, क्योंकि ब्राह्मण है जैसे अन्य विद्या सदाचार सम्पन्न ब्राह्मण हुआ करते हैं, इसप्रकार वादी के कहने पर प्रतिवादी अर्थ के भेद द्वारा प्रसद्भूत प्रर्थ की कल्पना से वादी के वाक्य का विघात करता है, वह कहता है कि यदि ब्राह्मण में विद्या और सदाचार रहता है तो भ्रष्ट ब्राह्मण में भी रहना चाहिये क्योंकि उसमें भी ब्राह्मणत्व है। वह विद्या और
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