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जय-पराजयव्यवस्था
श्वात्मा, तस्मानिष्क्रियः' इत्युक्त पर: प्राह-निष्क्रियत्वे सत्यात्मन: क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वं न स्यादाकाशवत्, अस्तिचैतत्, ततो नायं निष्क्रिय इति । साधर्येण तु प्रत्यवस्थानम्-'क्रियावानेवात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वात्, य ईदृश: स ईदृशो दृष्ट : यथा लोष्टादिः, तथा चात्मा, तस्मास्क्रियावानेव' इति ।
उत्कर्षसमादीनां लक्षणम्-“साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवावर्ण्य विकल्पसाध्यसमः" [ न्यायसू० ५।१।४ ] इति ।
तत्रोत्कर्षसमायास्तावल्लक्षणम्-दृष्टान्तधर्म साध्ये समासञ्जयतो मतोत्कर्षसमा जातिः । तद्यथा-'क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वाल्लोष्टवत्' इत्युक्त पर: प्रत्यवतिष्ठते-यदि क्रियाहेतुगुणाश्रयो जीवो लोष्टवरिक्रयावाँस्तदा तद्वदेव स्पर्शवान्भवेत् । अथ न स्पर्शवांहि क्रियावानपि न स्यादविशेषात् ।
व्यापक होने से । जो द्रव्य सक्रिय होता है वह व्यापक नहीं होता जैसे लोष्ट, प्रात्मा व्यापक है अत: निष्क्रिय है। इसतरह वादी द्वारा अनुमान प्रयुक्त होने पर प्रतिवादी कहता है-आत्मा के निष्क्रियपना मानने पर उसमें क्रिया हेतु गुणका आश्रय घटित नहीं हो सकता जैसे आकाश में घटित नहीं होता, किन्तु आत्मा में उक्त प्राश्रय देखा गया है अतः वह निष्क्रिय नहीं है। तथा प्रतिवादी कभी साधर्म्य द्वारा भी उक्त अनुमान का निराकरण करता है-अात्मा क्रियावान् ही है, क्योंकि यह क्रिया हेतु गुणका प्राश्रय है, जो ऐसा है वह इसीप्रकार देखा गया है, जैसे लोष्ट [मिट्टी का ढेला या पत्थर] आदि, आत्मा उसीतरह का है अत: अवश्य क्रियावान् है ।
उत्कर्षसमा आदि अग्रिम छह जातियों का सामान्यतः लक्षण इसप्रकार कहा जाता है- पक्ष और दृष्टांत के धर्म क समारोप से तथा दोनों में साध्यत्व होने से उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा और साध्यसमा जाति नामके दोष उपस्थित किये जाते हैं। इन छहों में से उत्कर्षसमा जाति का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं-दृष्टांत के धर्मका साध्य में समारोप करने से उत्कर्षसमा जातिदोष आता है, वह इसप्रकार प्रात्मा क्रियावान् है क्रिया हेतु गुणका आश्रय होने से लोष्ट की तरह, वादी के इस अनुमान में प्रतिवादी उलाहना [दोष] देता है कि, यदि प्रात्मा क्रिया हेतु गुणका प्राश्रय होने से लोष्ट के समान क्रियावान् है तो उसी लोष्ट के समान स्पर्शवान् भी मानना होगा। कहा जाय कि आत्मा स्पर्शवान् तो नहीं है तब
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