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प्रमेयकमलमार्तण्डे
विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम् ॥ ६१ ॥ विषयाभासा:-सामान्यं यथा सत्ताद्वैतवादिनः । केवलं विशेषो वा यथा सौगतस्य । द्वयं वा स्वतन्त्रं यथा योगस्य । कुतोस्य विषयाभासतेत्याह
तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च । ६२ ।। स ह्य वंविधोर्थः स्वयमसमर्थ : समर्थो वा कार्यं कुर्यात् ? न तावत्प्रथमः पक्षः;
विषयाभास: सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम् ।।६१।।
अर्थ-प्रमाण का विषय “सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः" इसप्रकार बतलाया था इससे विपरीत अकेला सामान्य अथवा अकेला विशेष या सामान्य और विशेष दोनों स्वतन्त्ररूप से प्रमाण के विषय हैं ऐसा कहना विषयाभास है । सत्ताद्वतवादी [ ब्रह्माद्वैतवादी ग्रादि ] प्रमाण का विषय सामान्य है ऐसा कहते हैं अर्थात प्रमाण मात्र सामान्य को जानता है सामान्य को छोड़कर अन्य पदार्थ ही नहीं हैं अतः प्रमाण अन्य को कैसे जानेगा इसप्रकार इन सत्ताद्वैतवादियों की मान्यता है। बौद्ध प्रमाण का विषय केवल विशेष है ऐसा बताते हैं । नैयायिक-वैशेषिक प्रमाण का विषय सामान्य और विशेष मानते तो हैं किन्तु इन दोनों का अस्तित्व सर्वथा पृथक् पृथक् बतलाते हैं सामान्य सर्वथा एक स्वतंत्र पदार्थ है और विशेष सर्वथा पृथक् एक स्वतंत्र पदार्थ है ऐसा मानते हैं ये सभी विषय असत् हैं, इसतरह के विषय को ग्रहण करने वाला प्रमाण नहीं होता है प्रमाण तो सामान्य और विशेष दोनों जिसके अभिन्न अंग हैं ऐसे पदार्थ को विषय करता है अतः एक एक को विषय मानना विषयाभास है । आगे इसीको बताते हैं
तथा-प्रतिभासनात् कार्या-करणाच्च ।।६२।। अर्थ-सामान्य और विशेष ये दोनों स्वतंत्र पदार्थ हो अथवा एक सामान्य मात्र ही जगत में पदार्थ है, या एक विशेष नामा पदार्थ ही वास्तविक है सामान्य तो काल्पनिक है ऐसा प्रतीत नहीं होता, प्रतीति में तो सामान्य विशेषात्मक एक वस्तु पाती है, देखिये-गाय में गोत्व सामान्य और कृष्ण शुक्ल आदि विशेष क्या न्यारे न्यारे प्रतिभासित होते हैं ? नहीं होते, संसार भर का कोई भी पदार्थ हो वह सामान्य
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