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तदाभासस्वरूपविचारः ननु व्यावृत्त्या तयोः कल्पना भविष्यतीत्याहव्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराद्वयावृत्त्याऽफलत्वप्रसङ्गात् ।। ६८ ॥
प्रमाणान्तराद्वयावृत्तौ वाऽप्रमाणत्वस्येति ।। ६६ ।। एतच्च फलपरीक्षायां प्रपञ्चितमिति पुनर्नेह प्रपञ्च्यते ।
क्योंकि अभेद में इसतरह का कथन होना अशक्य है, यहां कोई बौद्धमती शिष्य प्रश्न करे कि-प्रमाण और फल में अभेद होने पर भी व्यावृत्ति द्वारा यह प्रमाण का फल है ऐसा व्यवहार हो जाता है क्या दोष है ? व्यावृत्यापि न तत् कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्याऽफलत्वप्रसङ्गात् ।।६८।।
अर्थ--पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं कि-व्यावृत्ति-प्रफल की व्यावृत्ति फल है इसप्रकार की व्यावृत्ति से भी प्रमाण के फल की व्यवस्था नहीं होती, क्योंकि जैसे विवक्षित किसी प्रमाण का फल अफल से व्यावृत्त है वैसे अन्य फल से भी व्यावृत्त होगा, और जब उसको फलान्तर से व्यावृत्ति करने के लिये बैठेंगे तब वह अफलरूप ही सिद्ध होवेगा? यहां भावार्थ यह समझना कि बौद्धमत में शब्द का अर्थ अन्यापोह किया है, जैसे गो शब्द है यह गो अर्थ को नहीं कहता किंतु अगो की व्यावृत्ति-अगो का अभाव है ऐसा कहता है, इस विषय पर अपोहवाद नामा प्रकरण में दूसरे भाग में] बहुत कुछ कह पाये हैं और इस व्यावृत्ति या अन्यापोह मतका खण्डन कर आये हैं, यहां पर इतना समझना कि फल शब्द का अर्थ अफल व्यावृत्ति है ऐसा करते हैं तो उसका घूम फिर कर यह अर्थ निकलता है कि फल विशेष से व्यावृत्त होना, सो ऐसा अर्थ करना गलत है।
प्रमारणाद् व्यावृत्येवाऽप्रमाणत्वस्य ।।६।। अर्थ-तथा शब्द का अर्थ अन्य व्यावृत्तिरूप होने से बौद्ध फल शब्द का अर्थ अफल व्यावृत्ति [अफल नहीं होना] करते हैं तो जब अफल शब्द का अर्थ करना हो तो क्या करेंगे ? अफल की व्यावृत्ति हो तो करेंगे ? जैसे कि प्रमाण की व्यावृत्ति अप्रमाण है ऐमा अर्थ करते हैं ? किन्तु ऐसा अर्थ करना अयुक्त है। प्रमाण से प्रमाण
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