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जय-पराजयव्यवस्था
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इत्यप्युक्त तत्रैव ।
प्रथेदानी प्रतिपन्नप्रमाणतदाभासस्वरूपाणां विनेयानां प्रमाणतदाभासावित्यादिना फलमादर्शयतिप्रमाण-तदाभासी दुष्टतयोद्भावितौ परिहता-ऽपरिहृतदोषी वादिनः साधन-तदाभासो
प्रतिवादिनो दूषण-भूषणे च ।। ७३ । प्रतिपादितस्वरूपी हि प्रमाणतदाभासौ यथावत्प्रतिपन्नाप्रतिपन्नस्वरूपो जयेतरव्यवस्थावा निबन्धनं भवतः। तथाहि-चतुरङ्गवादमुररीकृत्य विज्ञातप्रमाणतदाभासस्वरूपेण वादिना सम्यक
__ अब जिन्होंने प्रमाण और प्रमाणाभास का स्वरूप जाना है ऐसे शिष्यों को प्रमाण और प्रमाणाभास जानने का फल क्या है सो बताते हैंप्रमाण तदाभासी दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः साधन
तदाभासो प्रतिवादिनो दूषण भूषणे च ।।७३।। अर्थ-प्रमाण और प्रमाणाभास का स्वरूप बता चुके हैं, यदि इनका स्वरूप भली प्रकार जाना हुआ है तो वाद में जय होता है और यदि नहीं जाना हना है तो पराजय होता है, इसका खुलासा करते हैं-वाद के चार अंग हुआ करते हैं सभ्य, सभापति, वादी और प्रतिवादी, इनमें जो वादी है [ सभा में पहली बार अपना पक्ष उपस्थित करने वाला पुरुष] वह यदि प्रमाण और प्रमाणाभास का स्वरूप जाना हुआ
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