________________
जय-पराजयव्यवस्था
५७३
तथा सिद्धः यथा जल्पो वितण्डा च, तथा च वादः, तस्मान्न विजिगीषतोरिति । न हि वादस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थो भवति; जल्पवितण्डयोरेव तत्त्वात् । तदुक्तम्
"तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कंटकशाखावरणवत्' [न्यायसू० ४।२।५०] इति । तदप्यसमीचोनम् ; वादस्याविजिगीषुविषयत्वासिद्धः। तथाहि-वादो नाविजिगीषुविषयो नि ग्रहस्थानवत्त्वात् जल्पवितण्डावत् । न चास्य निग्रहस्थान वत्त्वमसिद्धम् ; 'सिद्धान्ता
वाद नहीं चलता, क्योंकि वाद तत्वाध्यवसाय का संरक्षण नहीं करता, जो विजिगीषुषों के बीच में होता है वह ऐसा नहीं होता, जैसे जल्प और वितंडा में तत्वाध्यवसाय संरक्षण होने से वे विजिगीषु पुरुषों में चलते हैं, वाद ऐसा तत्वाध्यवसाय का संरक्षण तो करता नहीं अतः विजिगीषु पुरुषों के बीच में नहीं होता। इसप्रकार पंचावयवी अनुमान द्वारा यह सिद्ध हुआ कि वाद के चार अंग नहीं होते और न उसको विजिगीषु पुरुष करते हैं। यहां कोई कहे कि वाद भी तत्वाध्यवसाय के संरक्षण के लिये होता है ऐसा माना जाय ? सो यह कथन ठीक नहीं जल्प और वितंडा से ही तत्व संरक्षण हो सकता है, अन्य से नहीं । कहा भी है-जैसे बीज और अंकुरों की सुरक्षा के लिये कांटों को बाड़ लगायी जाती है, वैसे तत्वाध्यवसाय के संरक्षण हेतु जल्प और वितंडा किये जाते हैं।
जैन--यह कथन असमीचीन है, वादको जो आपने विजिगीषु पुरुषों का विषय नहीं माना वह बात प्रसिद्ध है, देखिये-अनुमान प्रसिद्ध बात है कि-वाद अविजिगीषु पुरुषों का विषय नहीं होता, क्योंकि वह निग्रह स्थानों से युक्त है, जैसे जल्प वितंडा निग्रहस्थान युक्त होने से अविजिगीषु पुरुषों के विषय नहीं हैं। वाद निग्रहस्थान युक्त नहीं हो सो तो बात है नहीं, क्योंकि आप यौग के यहां वाद का जो लक्षण पाया जाता है उससे सिद्ध होता है कि वाद में पाठ निग्रहस्थान होते हैं, अर्थात् 'प्रमाण तर्क साधनोपालंभः सिद्धान्ताविरुद्ध : पचावयवोपपन्नः, पक्ष पतिपक्षपरिग्रहो वादः" ऐसा वाद का लक्षण आपके यहां माना है, इस लक्षण से रहित यदि कोई वादका प्रयोग करे तो निग्रहस्थान का पात्र बनता है, इसी का खुलासा करते हैं कि सिद्धांत अविरुद्ध वाद न हो तो अपसिद्धांत नामका निग्रहस्थान होता है, अनुमान के पांच अवयव ही होने चाहिये ऐसा वादका लक्षण था उन पांच अवयवों से कम या अधिक अवयव प्रयुक्त होते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org