Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
कुत एतदित्याह अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ।
प्रतिभासादिभेदस्य च भेदकत्वादिति ॥६०॥
माने तो उस तर्क प्रमाण को प्रत्यक्षादि से पृथक् स्वीकार करना होगा ही और ऐसा मानने पर उन बौद्धों की दो प्रमाण संख्या कहां रही ? अर्थात् नहीं रहती। यदि उस तर्क को स्वीकार करके अप्रमाण बताया जाय तो उस अप्रमाणभूत तर्क द्वारा व्याप्ति की सिद्धि हो नहीं सकती क्योंकि जो अप्रमाण होता है वह वस्तु व्यवस्था नहीं कर सकता ऐसा सर्व मान्य नियम है ।
प्रतिभासादिभेदस्य च भेदकत्वात् ।।६।। अर्थ--कोई कहे कि अनुमान या तर्क आदि को प्रामाणिक तो मान लेवे किंतु उन ज्ञानों का अन्तर्भाव तो प्रत्यक्षादि में ही हो जावेगा ? सो इस कथन पर प्राचार्य कहते हैं कि प्रतिभास में भेद होने से-पृथक् पृथक् प्रतीति आने से ही तो प्रमाणों में भेद स्थापित किया जाता है, अर्थात् जिस जिस प्रतीति या ज्ञान में पृथक पथक रूप से झलक आती है उस उस ज्ञानको भिन्न भिन्न प्रमाणरूप से स्वीकार करते हैं, प्रत्यक्षादि की प्रतीति से तर्क ज्ञान की प्रतीति पृथक् या विलक्षण है क्योंकि प्रत्यक्षादि से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होकर तर्क ज्ञान से व्याप्ति का ग्रहण होता है इसी से सिद्ध होता है कि तर्क भी एक पृथक् प्रमाण है, जैसे कि प्रत्यक्षादि ज्ञान विलक्षण प्रतीति वाले होने से पृथक् पृथक् प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण, तर्क प्रमाण इत्यादि प्रमाणों में विभिन्न प्रतिभास है इन प्रमाणों की सामग्री भी विभिन्न है इत्यादि विषयों का पहले "तवेधा' इस सूत्र का विवेचन करते समय खुलासा कर दिया है अब यहां अधिक नहीं कहते हैं ।
विशेषार्थ-प्रत्यक्ष और परोक्ष इसप्रकार दो प्रमुख प्रमाण हैं ऐसा पहले सिद्ध कर आये हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण के सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष इसप्रकार दो भेद हैं इन दो में "विशदं प्रत्यक्षं" ऐसा प्रत्यक्ष का लक्षण पाया जाता है अतः ये कथंचित् लक्षण अभेद की अपेक्षा एक भी है। परोक्ष प्रमाण के स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पांच भेद हैं इन सभी में परोक्षमितरद
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