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प्रमेयकमलमार्तण्डे वाक्प्रयुज्यते तथा तथा प्रकृतमर्थं प्रतिपद्य त लोके सर्वभाषाप्रवीणपुरुषवत् । तथा च न तं प्रत्यनन्तरोक्तः कश्चित्प्रयोगाभास इति ।
अथेदानीमागमाभासप्ररूपणार्थमाह
रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ॥ ५१ ॥ रागाक्रान्तो हि पुरुषः क्रीडावशीकृतचित्तो विनोदार्थं वस्तु किञ्चिदप्राप्नुवन्माणवकैरपि सह क्रीडाभिलाषेरणेदं वाक्यमुच्चारयति
यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावध्वं माणवका इति ॥ ५२ ॥
शब्द द्वारा उस वस्तु को जानता है, अन्यथा नहीं। यह तो अव्युत्पन्न पुरुष की बात है, किन्तु जो पुरुष व्युत्पन्न बुद्धि है सब प्रकार के वाक्यों के प्रयोग करने समझने में कुशल है वह तो जिस जिस प्रकार का वाक्य प्रयुक्त करो उसको उसी उसी प्रकार से झट समझ जाता है, जैसे कोई पुरुष संपूर्ण भाषाओं में प्रवीण है तो वह जिस किसी प्रकार से वचन या वाक्य हो फौरन उसका अर्थ समझ जाता है, इस तरह यदि अनुमान प्रयोग में जो व्युत्पन्न है उसके लिये कैसा भी अनुमान बतानो वह झट समझ जाता है, उस व्युत्पन्न मति पुरुष को कोई भी प्रयोग बालप्रयोगाभास नहीं कहलायेगा। क्योंकि वह हर तरह से समझ सकता है । अस्तु ।
अब इस समय आगमाभास का प्ररूपण करते हैं
रागढ षमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ।।५।।
अर्थ-राग से युक्त अथवा द्वष मोहादि से युक्त जो पुरुष है ऐसे पुरुष के वचन के निमित्त से जो ज्ञान होता है वह अागमाभास कहलाता है। रागादि से आक्रान्त व्यक्ति कभी क्रीड़ा कौतुहल के वश होकर विनोद के लिये [मनोरंजन के लिये] कुछ वस्तु को जब नहीं पाता तब बालकों के साथ भी क्रीड़ा की अभिलाषा से इस तरह बोलता है कि
यथा नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावध्वं माणवका: ।।५२।।
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