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प्रमेय कमलमार्तण्डे प्रमाणोपन्यासः स्यात्; इत्यप्यसमीचीनम् ; यतो वादिना प्रतिवादिना वा सभ्यसमक्षं स्वोपन्यस्तो हेतुः प्रमाणतो यावन्न परं प्रति साध्यते तावत्तं प्रत्यस्य प्रसिद्ध रभावात्कथं नान्यतरासिद्धता ? नन्वेवमप्यस्यासिद्धत्वं गौणमेव स्यादिति चेत् ; एवमेतत्, प्रमाण तो हि सिद्ध रभावादसिद्धोसौ न तु स्वरूपतः । न खलु रत्नादिपदार्थस्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावत्कालं मुख्यतस्तदाभासो भवतीति ।
समाधान-यह कथन असमीचीन है-वाद करने में उद्युक्त वादी प्रतिवादी जब तक सभासदों के समक्ष अपने हेतु को प्रमाण से सिद्ध नहीं करते तब तक वह परके लिये अप्रसिद्ध ही रहता है अतः हेतु अन्यतर प्रसिद्ध कैसे नहीं हुआ ? अवश्य हुआ। अर्थात् सभा में वादी अपना मत स्थापित करता है, अनुमान द्वारा स्वमत सिद्ध करता है उस समय प्रतिवादी को उसका अनुमान प्रसिद्ध ही रहता है जब वह अपने अनुमानगत हेतु को उदाहरण आदि से सिद्ध करता है [प्रमाण से सिद्ध करता है] तभी उसको परवादी मानता है । अतः अन्यतर असिद्ध हेतु किस प्रकार नहीं होता ? होता ही है ।
शंका-इसतरह से हेतु को अन्यतर प्रसिद्ध बताया जाय तो इसकी यह असिद्धता गौण कहलायेगी।
समाधान-ठीक तो है यह हेतु तब तक ही प्रसिद्ध रहता है जब तक कि प्रमाण से उसे सिद्ध करके नहीं बताया जाता है, यह हेतु स्वरूप से असिद्ध नहीं रहता, परवादी की अपेक्षा से ही इसे प्रसिद्ध हेत्वाभास कहा है ।
भावार्थ-जो वस्तु परको मालूम नहीं है, अथवा जिस पदार्थ के विषय में किसी को जानकारी नहीं है तो उतने मात्र से वह वस्तु असत् है ऐसा नहीं माना जाता, रत्न अमृतादि पदार्थ किसी को अज्ञात है जब तक वे उसे प्रतीत नहीं होते तब तक क्या वे रत्नाभास आदि हो जाते हैं ? अर्थात् नहीं होते, उसी प्रकार यह अन्यतर असिद्ध हेत्वाभास है, वादो प्रतिवादी आपस में एक दूसरे को अपना मत समझाते हैं तब तक उसके लिये वह असिद्ध रहता किन्तु वह स्वरूप से प्रसिद्ध नहीं रहता। यहां तक यह बात निश्चित हुई कि वादी प्रतिवादियों में से किसी एक को जो हेतु प्रसिद्ध होता है वह अन्यतर प्रसिद्ध हेत्वाभास है । इसप्रकार प्रसिद्ध हेत्वाभास के दो ही भेद होते हैं, नैयायिकादि के माने गये हेत्वाभास सभी पृथक् वास्तविक हेत्वाभास नहीं हैं क्योंकि पृथक लक्षण वाले नहीं होने से इन्हीं दो हेत्वाभासों में अंतर्लीन हैं ऐसा सिद्ध हुआ।
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