Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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तदाभासस्वरूपविचारः
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यथा श्रावणः शब्दः शब्दत्वादिति ॥३६॥ न ह्यसौ स्वसाध्यं साधयति, तस्याध्यक्षादेव प्रसिद्धः । नापि साध्यान्तरम् ; तत्रावृत्तेरित्यत पाह
किञ्चिदकरणात् ॥ ३७ ।। प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्येऽकिञ्चित्करोसौ
यथाअनुष्णोग्निद्रव्यत्वादित्यादौ किंचित्कर्तु मशक्यत्वात् ।। ३८ ॥ कुतोस्याऽकिञ्चित्कर त्वमित्याह-किञ्चित्कर्तु मशक्यत्वात् ।
किसी अन्य प्रमाण से सिद्ध हो चुका हो, या किसी प्रत्यक्षादि से जिसमें बाधा आती हो ऐसे वस्तु को साध्य बनाकर उसमें जो हेतु दिया जाय तो वह अकिंचित्कर माना जाता है, न किंचित् करोति इति अकिंचित्करः अनर्थकः ऐसा व्युत्पत्यर्थ है। इसीके उदाहरण देते हैं
यथा श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् ।।३६।। जैसे किसी ने कहा कि शब्द कर्णेन्द्रिय का विषय है, क्योंकि वह शब्दरूप है। यहां शब्दत्व हेतु स्वसाध्य को [ श्रावणत्व को ] कुछ भी सिद्ध नहीं करता, क्योंकि साध्य प्रत्यक्ष सिद्ध है अर्थात् शब्द कर्ण से प्रत्यक्ष सुनायी दे रहा उसे क्या कहना कि यह कर्ण से सुनायी देने वाला है ? अन्य साध्य को भी सिद्ध नहीं करता, क्योंकि उसमें नहीं है, इसीको कहते हैं
किञ्चिदकरणात् ।। ३७ ।। अर्थ-यह शब्दत्व हेतु कुछ भी नहीं करता है। प्रत्यक्षादि से बाधित जो साध्य है उसमें भी यह हेतु कुछ नहीं करता ऐसा बतलाते हैं
यथा अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादित्यादौ किंचित् कर्तु मशक्यत्वात् ।।३।।
__ अर्थ-जैसे किसी ने अनुमान वाक्य का प्रयोग किया कि अग्नि ठंडी होती है, क्योंकि वह द्रव्यरूप है, जिसप्रकार जल द्रव्य होने से ठंडा रहता है ! सो साध्य में
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