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प्रमेयकमलमार्तण्डे
साङ ख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वादिति ।। २७ ॥ चाविद्यमान निश्चयः । कुत एतत् ?
तेनाज्ञातत्वात् ।। २८ ॥ न ह्यस्याविर्भावादन्यत् कारणव्यापारादसतो रूपस्यात्मलाभलक्षणं कृतकत्वं प्रसिद्धम् ।
सन्दिग्धविशेष्यादयोप्यविद्यमाननिश्चयतालक्षणातिक्रमाभावान्नार्थान्तरम् । तत्र सन्दिग्धविशेष्यासिद्धो यथा-अद्यापि रागादियुक्तः कपिल: पुरुष वे सत्याद्याप्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात् । सन्दिग्धवि
सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ।।२७।। अर्थ-सांख्य मतानुसारी शिष्य को कहना कि शब्द परिणामी है, क्योंकि कृतक-किया हुआ है, सो इस अनुमान के साध्य साधन भाव का निश्चय उस शिष्य को नहीं होने से उसके प्रति कृतकत्व हेतु संदिग्धासिद्ध है कैसे सो ही बताते हैं
तेनाज्ञातत्वात् ।। २८ ।। अर्थ-सांख्यमतानुसारी शिष्य कृतकत्व हेतु और परिणामी साध्य इनके साध्य साधनभाव को नहीं जानता है, इसका भी कारण यह है कि-सांख्य के यहां प्राविर्भाव तिरोभाव को छोड़कर अन्य कोई उत्पत्ति और विनाश नहीं माना जाता, आविर्भाव से पृथक किसी कारण के व्यापार से कोई असत् स्वरूप पदार्थ का आत्म लाभ होना-उत्पन्न हो जाना ऐसा कृतकपना सांख्य के यहां पर प्रसिद्ध नहीं है । उनके यहां तो आविर्भाव-प्रकट होना ही उत्पन्न होना है और तिरोभाव होना ही नाश है, अमुक कारण से अमुक कार्य पैदा हुअा, मिट्टी ने घड़े को किया, कुम्हार ने घड़े को किया ऐसा उनके यहां नहीं माना है अतः ऐसे व्यक्ति को कोई कहे कि शब्द कृतक होने से परिणामी है, शब्द को उत्पन्न किया जाता है अतः वह परिणामी है इत्यादि सो यह कथन उस सांख्यमती शिष्य के प्रति संदिग्ध ही रहेगा।
इस संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास के परवादी संदिग्धविशेष्य आदि अनेक भेद करते हैं किन्तु उन सबमें अविद्यमान निश्चयरूप लक्षण का अतिक्रम नहीं होने से कोई भिन्नपना नहीं है अर्थात् संदिग्धविशेष्य इत्यादि हेतु पृथकरूप से सिद्ध नहीं होते । वे
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