Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
त्वन्यतः कृतकत्वादेरिति । यद्वा-'प्रयत्नानन्तरीयकत्वहेतूपादानसामर्थ्यात्' प्रयत्नानन्तरीयक एव शब्दोत्र पक्षः । तत्र चास्य सर्वत्र प्रवृत्तेः कथं भागासिद्धत्वमिति ?
प्रथेदानी द्वितीयमसिद्धप्रकारं व्याचष्टे
भावार्थ-असिद्ध हेत्वाभास के दो भेद हैं स्वरूपासिद्ध और सन्दिग्धासिद्ध, इनमें से स्वरूपासिद्ध हेतु वह है जिसका स्वरूप असिद्ध है, नैयायिक के यहां इस हेतु के आठ भेद माने हैं, विशष्वासिद्ध, विशेषणासिद्ध, पाश्रयासिद्ध, पाश्रयैकदेशासिद्ध, व्यर्थविशेष्यासिद्ध, व्यर्थविशेषणासिद्ध व्यधिकरणासिद्ध, भागासिद्ध । आश्रयैकदेशासिद्ध और भागासिद्ध में यह अंतर है कि-आश्रय एक देश प्रसिद्ध में हेतु तो सिद्ध रहता है किन्तु आश्रय का एक देश ही प्रसिद्ध होता है, और भागासिद्ध में हेतु प्रसिद्ध होता है और पक्ष या पाश्रय का एक देश या भाग तो सिद्ध होता है ।
पहले के छह भेदों के लिये तो जैनाचार्य ने इतना ही कहा कि ये छहों भेद स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास से पृथक् सिद्ध नहीं होते, इनका लक्षण स्वरूपासिद्ध के समान ही है, जब तक लक्षण भेद नहीं होता तब तक वस्तु भेद नहीं माना जाता है । व्यधिकरणासिद्ध के लिये समझाया है कि यह कोई दूषण नहीं है कि हेतु का अधिकरण साध्य या पक्ष से भिन्न होने से वह हेत्वाभास बन जाता हो अर्थात् साध्य-पक्ष का अधिकरण और हेतु का अधिकरण विभिन्न भी हो सकता है जैसे कृतिकोदय नामा हेतु रोहिणी उदय नामा पक्ष के आधार में नहीं रहकर साध्य का गमक ही है, अतः व्यधिकरणासिद्ध नामा कोई हेत्वाभास सिद्ध नहीं होता। भागासिद्ध नामा हेत्वाभास भी साध्याविनाभावी हो तो अवश्य ही गमक होता है, अर्थात् पक्ष के एक भाग में रहे वह भागासिद्ध हेत्वाभास है ऐसा कहना भी अयोग्य है क्योंकि बहुत से इसतरह के हेतु होते हैं कि जो पक्ष के एक भाग में रहकर भी साध्य के साथ अविनाभावी सम्बन्ध होने के कारण सत्य हेतु कहलाते हैं-स्वसाध्य के गमक होते हैं। अतः परवादी को ऐसे ऐसे हेत्वाभासों के भेद नहीं मानने चाहिये ।
अब असिद्ध हेत्वाभास का दूसरा प्रकार बताते हैं
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