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तदाभासस्वरूपविचारः
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व्यधिकरणासिद्धो यथा श्रनित्यः शब्दः पटस्य कृतकत्वात् । व्यधिकरणश्चासावसिद्धश्चेति । ननु शब्दे कृतकत्वमस्ति तत्कथमस्यासिद्धत्वम् ? तदयुक्तम् ; तस्य हेतुत्वेनाप्रतिपादितत्वात् । न चान्यत्र प्रतिपादितमन्यत्र सिद्धं भवत्यतिप्रसङ्गात् ।
भागासिद्धो यथा - [ - [ अ ] नित्य: शब्द: प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् । व्यधिकरणासिद्धत्वं भागा
[ अनित्यपना ] सिद्ध हो जाता है अतः सामान्यवान् विशेषरण व्यर्थ ठहरता है । "व्यर्थ है विशेष्य और विशेषण जिसके" ऐसा व्यर्थ विशेष्या सिद्धादि पदों का समास है ।
जहां हेतु और साध्य का अधिकरण भिन्न भिन्न हो वह व्यधिकरण ग्रसिद्ध हेत्वाभास कहलाता है, जैसे- शब्द अनित्य है, क्योंकि पटके कृतकपना है । यहां पटके कृतकपने से शब्द का अनित्यपना सिद्ध किया सो गलत है, ग्रन्य का धर्म अन्य में नहीं होता, कोई कहे कि शब्द में भी तो कृतक धर्म होता है अतः उसे प्रसिद्ध क्यों कहा जाय ? सो बात प्रयुक्त है, शब्द में कृतकत्व है जरूर किन्तु उसको तो हेतु नहीं बनाया, अन्य जगह कही हुई बात अन्य जगह लागू नहीं होती अन्यथा प्रतिप्रसंग होगा, अर्थात् फिर तो एक जगह साध्यसिद्धि के लिये हेतु के उपस्थित करने मात्र से सर्वत्र सभी प्रकार के साध्यों की सिद्धि हो बैठेगी । अतः पटके कृतकत्व से शब्द में अनित्यपना सिद्ध करना शक्य है, शब्द के कृतकत्व से ही शब्द में कृतकत्व सिद्ध हो सकता है अन्यथा व्यधिकरणासिद्ध नामा हेत्वाभास होगा ।
जो पक्ष के एक भाग में असिद्ध हो उसे भागासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं जैसेशब्द अनित्य है क्योंकि प्रयत्न के अनन्तर होता है । पक्ष के एक भाग में रहे और एक भाग में न रहे उस हेतु को भागासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं, यहां शब्द पक्ष है साध्य नित्यत्व है और हेतु प्रयत्न के अनन्तर होना है, सो संसार के सारे ही शब्द प्रयत्न के बाद ही हो ऐसी बात नहीं है, मेघध्वनि प्रादि बहुत से हुए देखे जाते हैं, अतः पक्ष के एक उनमें तो प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु है इसलिये भागासिद्ध कहलाता है ।
शब्द बिना प्रयत्न के भी होते भाग में - जो शब्द पुरुष द्वारा किये - बोले गये हैं और मेघध्वनि आदि शब्द में यह हेतु नहीं है
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