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प्रमेयकमलमार्तण्डे
चक्षरसयोद्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥ ५ ॥ एतच्च सर्व प्रमाणसामान्य लक्षणपरिच्छेदे विस्तरतोऽभिहितमिति पुनर्नेहाभिधीयते । तथा
चक्षू रसयोर्द्रव्ये संयुक्त समवाय वच्च ।।५।। चक्षु और रस का द्रव्य में संयुक्त समवाय होने पर भी जैसे ज्ञान नहीं होता अर्थात् सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वाले के मत में चक्षु और रसका सन्निकर्ष होना तो मानते हैं किंतु वह सन्निकर्ष प्रमाणभूत नहीं है क्योंकि उस सन्निकर्ष द्वारा ज्ञान रसका ज्ञान नहीं होता इसीप्रकार अस्वसंविदित ज्ञान तथा सन्निकर्षादि भी प्रमाणाभास है, अर्थात् वैशेषिकादि परवादी सन्निकर्ष को [इन्द्रिय द्वारा वस्तु का स्पर्श होना] प्रमाण मानते हैं किंतु वह प्रमाणाभास है, क्योंकि यदि सन्निकर्ष-छूना मात्र प्रमाण होता तो जैसे नेत्र द्वारा रूपका स्पर्श होकर रूपका ज्ञान होना मानते हैं वैसे जहां जिस द्रव्य में रूप है उसी में रस है अतः नेत्र और रूपका संयुक्त समवाय होकर नेत्र द्वारा रूपका ज्ञान होना मानते हैं, वैसे उसी रूप युक्त पदार्थ में रस होने से नेत्र का भी रसके साथ संयुक्त समवाय है किन्तु नेत्र द्वारा रसका ज्ञान तो होता ही नहीं, अतः निश्चय होता है कि सन्निकर्ष प्रमाण नहीं प्रमाणाभास है। इन अस्वसंविदित आदि के विषय में पहले परिच्छेद में प्रमाण का सामान्य लक्षण करते समय विस्तारपूर्वक कहा जा चुका है अब यहां पुनः नहीं कहते ।
विशेषार्थ-ज्ञानको अस्वसंविदित मानने वाले बहुत से परवादी हैं, नैयायिक ज्ञानको अस्वसंविदित मानते हैं, इनका कहना है कि ज्ञान परपदार्थों को जानता है किंतु स्वयं को नहीं, स्वयं को जानने के लिये तो अन्य ज्ञान चाहिये, इसीलिये नैयायिक को ज्ञानान्तर वेद्यज्ञानवादी कहते हैं, इस मतका प्रथम भाग में भलीभांति खंडन किया है और यह सिद्ध किया है कि ज्ञान स्व और पर दोनों को जानता है। मीमांसक के दो भेद हैं भाट्ट और प्राभाकर, इनमें से भाट्ट ज्ञानको सर्वथा परोक्ष मानता है, नैयायिक तो अन्य ज्ञान द्वारा ज्ञानका प्रत्यक्ष होना तो बताते हैं किंतु भाट्ट एक कदम आगे बढ़ते हैं ये तो कहते हैं कि ज्ञान अन्य अन्य सभी वस्तुओं को जान सकता है किन्तु स्वयं हमेशा परोक्ष ही रहेगा, इसीलिये इन्हें परोक्ष ज्ञानवादी कहते हैं, यह मत भी नैयायिक के समान बाधित होने से पहले भाग में खण्डित हो चुका है। प्राभाकर अपने भाई
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