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दिगद्रव्यवादः
३२३ यदेतत्पूर्वापरादिज्ञानं तन्मूलद्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनं तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्सुखादिप्रत्ययवत् । विभुत्वैकत्वनित्यत्वादयश्चास्या धर्माः कालवदवगन्तव्याः । तस्याश्चैकत्वेपि प्राच्यादिभेदव्यवहारो भगवतः सवितुरुं प्रदक्षिणमावत मानस्य लोकपालगृहीतदिक्प्रदेश संयोगाद्घटते ।
तदप्यसमीचीनम् ; प्रोक्तप्रत्ययानामाकाशहेतुकत्वेनाकाशाद्दिशोऽर्थान्तरत्वासिद्धः। तत्प्रदेशश्रेणिष्वेव ह्यादित्योदयादिवशात्प्राच्यादिदिग्व्यवहारोपपत्तनं तेषां निर्हेतुकत्वं नाप्यविशिष्टपदार्थहेतुकत्वम् । तथाभूतप्राच्यादिदिक्संबन्धाच्च मूर्तद्रव्येषु पूर्वापरादिप्रत्ययविशेषस्योत्पत्तन परस्परापेक्षया मूर्त द्रव्याण्येव तद्धतवो येनकतरस्य पूर्वत्वासिद्धावन्यतरस्यापरत्वासिद्धिः, तदसिद्धौ चैकत रस्य पूर्वस्वायोगादितरेत राश्रयत्वेनोभयाभाव: स्यात् ।
पूर्व आदि का ज्ञान होता है वह मूतं द्रव्य के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ के कारण से होता है, क्योंकि मूर्त पदार्थ के प्रत्यय से यह प्रत्यय विलक्षण है, जैसे सुख दुःखादि के प्रत्यय मूर्तद्रव्य के प्रत्यय से विलक्षण है। यह दिशाद्रव्य भी कालद्रव्य के समान विभु-व्यापक है, तथा नित्य एकत्व आदि धर्मयुक्त है। इस एक ही दिशाद्रव्य के पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा इत्यादि जो भेद होते हैं वे तो भगवान सूर्य के मेरु की प्रदक्षिणा रूप से घूमने से लोकपाल द्वारा ग्रहण किये गये दिशा प्रदेशों के संयोग से हा करते हैं । इसतरह दिशा द्रव्य को सिद्धि होती है ।
__ जैन-यह कथन असत् है, पूर्व, पश्चिम आदि जो प्रतिभास होते हैं वे आकाश के कारण हुप्रा करते हैं, अतः आकाश से दिशा की भिन्न रूप से सिद्धि नहीं होती है। आकाश के प्रदेशों की श्रेणियों में सूर्य के उदयादि के निमित्त से पूर्व दिशा पश्चिम दिशा इत्यादि व्यवहार हो जाया करता है, इसी कारण से पूर्व प्रादि प्रत्यय को निर्हेतुकपना या अविशिष्ट पदार्थ कारणपना होने का प्रसंग नहीं आता है। आकाश प्रदेश है लक्षण जिसका ऐसी पूर्वादि दिशा के संबंध से ही मूर्त पदार्थों में "यह पूर्व दिशा का पदार्थ है, और यह पश्चिम दिशा का पदार्थ है" इत्यादि प्रत्यय विशेष हो जाया करते हैं। मूत्तिक पदार्थ ही परस्पर में इस प्रत्यय के कारण नहीं होते, अतः वैशेषिक ने जो दोष दिया था कि मत्तिक पदार्थ परस्पर में एक दूसरे पूर्वादि प्रतीति कारण होवेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष पाता है। सो गलत ठहरता है, अर्थात् मूर्तिक पदार्थों में से एक के पूर्वपने के सिद्धि नहीं है, उसके प्रसिद्ध होने से दूसरे मत्तिक पदार्थ के पश्चिमपने की भी असिद्धि रहेगी, और उसके प्रसिद्ध रहने से उस एक का पूर्वपना
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