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गुणपदार्थवादः
४०७ भावात् । न चावयवसंयोगादवयविनः संयोगोन्यः; तइँदैकान्तस्य प्रागेव प्रतिक्षेपात्, विनाशोत्पादप्रक्रियायाश्च कृतोत्तरत्वात् । तन्न विभागो घटते ।
नापि परत्वापरत्वे; परापरप्रत्ययाभिधानयोस्तदन्तरेणापि रूपादौ सम्भवात् । तथाहिक्रमोत्पन्ननीलादिगुणेषु 'परं नीलमपरं च' इति प्रत्ययोत्पत्तिः असत्यपि परत्वापरत्वलक्षणे गुणे दृष्टा गुणानां निर्गुणतयोपगमात्, तथा घटादिष्वपि स्यात् । अथात्र दिक्काल कृतः परापरप्रत्ययः; ननु घटादिष्वप्यसौ तत्कृतोस्तु विशेषाभावात् । तथा च प्रयोग :-योयं परापरादिप्रत्यय : स परपरिकल्पितगुणरहितार्थमात्रकृतक्रमोत्पादव्यवस्थानिबन्धन:, परापरप्रत्ययत्वात्, रूपादिषु परापरप्रत्ययवत् ।
ऐसा कहना भी गलत है, क्योंकि अवयव और अवयवी में सर्वथा भेद मानने का पहले ही निराकरण कर चुके हैं। तथा वैशेषिक के विनाश उत्पत्ति की प्रक्रिया का पहले ही खंडन कर दिया है, इसप्रकार विभागनामा गुण सिद्ध नहीं होता है ।
परत्व और अपरत्व गुण भी घटित नहीं होते हैं, "यह पर है, यह अपर है" ऐसा ज्ञान तथा नाम होता है वह परत्व अपरत्व गुण के बिना भी रूप आदि वस्तु में देखा जाता है । अब इसीको बताते हैं-क्रम से उत्पन्न हुए नील पोत आदि गुणों में यह पर नील है [पुराना है] और यह अपर नील है [पीछे उत्पन्न हुआ है अर्थात् नया है] इत्यादि प्रतीति होती है [ज्ञान तथा नाम होता है] वह परत्व-अपरत्व गुण के बिना ही होता है, क्योंकि इन नीलादि गुणों में गुण निर्गुण होने के कारण परत्वादि गुण रह नहीं सकते । जैसे नील आदि गुणों में बिना परत्व-अपरत्व गुण के पर-अपर का ज्ञान होना स्वीकार किया है, वैसे घट, पट प्रादि पदार्थों में भी बिना परत्व-अपरत्व गुण के पर-अपर का ज्ञान होता है ऐसा स्वीकार करना चाहिये ।
वैशेषिक-रूप प्रादि गुणों में पर-अपर ज्ञान दिशा तथा काल द्रव्य के निमित्त से होता है ?
जैन - तो घट पट अादि पदार्थों में भी दिशा और काल के निमित्त से परअपर का ज्ञान होवे ? कोई भेद नहीं। अनुमान प्रयोग परापर का जो ज्ञान होता है वह पर [वैशेषिक कल्पित परत्वादि गुणों से रहित केवल दिशा और कालकृत क्रमिक उत्पाद के कारण ही होता है क्योंकि ये परत्व-अपरत्व प्रतिभासरूप है, जैसे रूपादि गुणों में पर-अपर ज्ञान परत्वापरत्व गुण से रहित होता है। तथा पर और विप्रकृष्ट
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