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समवायपदार्थविचार:
४६३
किञ्च, 'कुण्डली देवदत्तः' इत्यादिमतिरुपजायमाना किन्निबन्धनेत्यभिधातव्यम् ? न तावत्पुरुष कुण्डल मात्र निबन्धना; सर्वदा तस्याः सद्भावप्रसङ्गात् ।
किश्व यदेव केनचित्क्वचिदुपलब्धसत्त्वं तस्यैवान्यत्र विधिप्रतिषेधमुखेन लोके व्यवहारप्रवृत्ति दृष्टा । यदि तु संयोगो न कदाचिदुपलब्धस्तत्कथमस्य 'चैत्रोऽकुण्डली कुण्डली' वा इत्येवं विभागेन व्यवहारो भवेत् ? 'चैत्रोऽकुण्डली' इत्यत्र हि न कुण्डलं चैत्रो वा प्रतिषिध्यते देशादिभेदेनानयोः सतोः प्रतिषेधायोगात् । तस्माच्चैत्रस्य कुण्डल संयोगः प्रतिषिध्यते । तथा 'चैत्रः कुण्डली' इत्यनेनापि विधिवाक्येन चैत्रकुण्डलयोर्नान्यतरस्य विधानं तयोः सिद्धत्वात् । पारिशेष्यात्संयोगस्यैव विधिविज्ञायते ।" [ न्यायवा० पृ० २१८-२२२ ]
किञ्च, "कुण्डली देवदत्तः " यह देवदत्त कुण्डलयुक्त है इत्यादि जो प्रतीति हुआ करती है इसमें कौन कारण है यह कहना चाहिये ! केवल देवदत्त पुरुष या केवल कुण्डल [ कान के आभूषण ] तो कारण हो नहीं सकते । क्योंकि ये कारण होते तो सर्वदा [ देवदत्त और कुण्डल के अलग अलग रहने पर उस अकेले देवदत्तादि में भी ] उक्त प्रतीति के सद्भाव का प्रसंग आता है ।
दूसरी बात यह है कि किसी पुरुष द्वारा कहीं पर जो कुछ उपलब्ध होता है उसी उपलब्ध वस्तु का अन्य स्थान पर विधि या निषेध होता हुआ देखा जाता है । यदि संयोग कभी कदाचित् उपलब्ध नहीं हुआ है तो यह चैत्र कुण्डल वाला नहीं है अथवा यह कुण्डल वाला है इत्यादि विभागरूप से व्यवहार किसप्रकार होगा ? चैत्र कुण्डल वाला नहीं है इत्यादि व्यवहार में न कुण्डल का निषेध किया गया है, और न चैत्र का निषेध किया गया है, क्योंकि कुण्डल और चैत्र अपने अपने स्थान पर मौजूद ही हैं, उनका निषेध कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता, इसलिये "चैत्र कुण्डल वाला नहीं है” इत्यादि प्रतीति में चैत्र का कुण्डल के साथ होने वाला जो संयोग है उसका निषेध करते हैं । इसीप्रकार "चैत्र कुण्डल वाला है" इत्यादि विधि वाक्य द्वारा न चैत्र की विधि होती है और न कुण्डल की विधि होती है, क्योंकि यदि अकेले चैत्रादि की विधि होती तो कुण्डल रहित चैत्र में या चैत्र रहित कुण्डल में भी ऐसी विधि होती । श्रतः परिशेष न्याय से प्रमाणभूत सिद्ध होता है कि " चैत्र कुण्डल वाला है" इत्यादि वाक्य द्वारा संयोग का ही कथन होता है-संयोग का ही प्रतिभास होता है ।
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