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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
यत्वेप्येषामाधेयत्वमल्पपरिमाणत्वात्, तत्कार्यत्वात् तथाप्रतिभासाद्वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; सामान्यस्य महापरिमाणगुणस्य चानाधेयत्वप्रसंगात् । द्वितीयपक्षोप्यत एवायुक्तः ।
तृतीयपक्षयविचारितरमणीयः; तेषामाधेयतया प्रतिभासाभावात् । तदभावश्च रूपादीनां स्वाधारेष्वन्तर्बहिश्च सत्त्वात् । न ह्यन्यत्र कुण्डादावधिकरणे बदरादीनामाधेयानां तथा सत्त्वमस्ति । अथ रूपादीनामाधेयत्वे सत्यपि युतसिद्धेरभावादुपरितनतया प्रतिभासाभाव:; न; युतसिद्धत्वस्योपरितनत्वप्रतीत्य हेतुत्वात् श्रन्यथोद्ध्ववस्थितवंशादेः क्षीरनीरयोश्च सम्बन्धे तत्प्रसङ्गात् । ततः परपरि
है । आपने निष्क्रिय होते हुए भी गुणों में आधेयभाव माना है वह अल्प परिमाण [ माप ]पना होने से, या उन गुणी द्रव्य का कार्य होने से प्रथवा वैसा - आधेयरूप से प्रतिभास होने से । प्रथम पक्ष-संयोगी द्रव्य से गुण अल्प परिमाणरूप हैं अतः गुणों में आधेयपना है, प्रयुक्त होगा, क्योंकि सामान्य तथा महापरिमाण नामा गुण को अनाधेय मानना पड़ेगा । क्योंकि इनमें अल्प परिमाणत्व नहीं है । गुण संयोगी द्रव्य का कार्य है श्रतः इसमें श्राधेयत्व होता है, ऐसा दूसरा पक्ष भी इसीलिये गलत होता है, अर्थात् जो द्रव्य का कार्य हो उसी में आधेयपना होता है ऐसा कहेंगे तो महापरिमाण गुण में आधेयपना घटित नहीं होता, क्योंकि महापरिमाण किसी द्रव्य का कार्य नहीं है ।
तीसरा पक्ष - गुणों में श्राधेयपना प्रतीत होता है अतः माना है ऐसा कहना भी विचारित रमणीय है, क्योंकि गुण प्राधेयरूप प्रतिभासित होते ही नहीं, उस तरह से प्रतिभासित नहीं होने का कारण भी यह है कि-रूप रसादि गुण अपने आधारभूत घट पट प्रादि पदार्थों में अंतरंग और बहिरंग दोनों तरह से रहते हैं, श्राधेयत्व ऐसा नहीं है वह तो मात्र बहिरंग से रहता है । कुण्ड प्रादि प्रधिकरणभूत अर्थ में श्राधेयरूप बेर आंवला आदि का अंतरंग - बहिरंग प्रकार से सत्व नहीं रहता ।
वैशेषिक – रूप रस इत्यादि गुण यद्यपि प्राधेयरूप हैं तो भी वे युत सिद्ध [ पृथक् पृथक् सिद्ध ] नहीं हैं अतः उनका ऊपरपने से [ बाहर से ] प्रतिभास नहीं होता ?
जैन - यह नहीं कहना, ऊपरपने से प्रतीति होने का कारण युत सिद्धत्व है ऐसा कहना अयुक्त है, अर्थात् जिनमें युतसिद्धत्व हो उसमें उपरितनरूप से प्रतीति होती है और जिनमें युत सिद्धत्व [युत - पृथक् पृथक् रूप से सिद्धयुत सिद्धत्व है - पृथक्
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