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फलस्वरूपविचारः
भेदस्यापि प्रतीतेः । न च 'सर्वथा करणाद्भिन व क्रिया' इति नियमोस्ति ; 'प्रदीपः स्वात्मनात्मानं प्रकाशयति' इत्यत्राभेदेनाप्यस्या: प्रतीतेः। न खलु प्रदीपात्मा प्रदीपाद्भिन्न :; तस्याऽप्रदीपत्वप्रसंगात् पटवत् । प्रदीपे प्रदीपात्मनो भिन्नस्यापि समवायात्प्रदीपत्वसिद्धिरिति चेत् ; न; अप्रदीपेपि घटादी प्रदीपत्वसमवायानुषङ्गात् । प्रत्यासत्तिविशेषात्प्रदीपात्मन: प्रदीप एव समवायो नान्यत्रेति चेत्; स कोऽन्योन्यत्र कथञ्चित्तादात्म्यात् ।
एतेन प्रकाशन क्रियाया अपि प्रदीपात्मकत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम् । तस्यास्ततो भेदे प्रदीप
समाधान-यह बात गलत है, इसतरह भी सर्वथा भेद सिद्ध नहीं होता, सत्व आदि धर्मों की अपेक्षा इन करण और क्रियामें अभेद भी है। अर्थात् कर्ता देवदत्तादि करण वसूलादि एवं छेदन क्रिया ये सब अस्ति-सत्वरूप है, सत्त्वदृष्टि से इनमें कथंचित् अभेद भी है । तथा यह सर्वथा नियम नहीं है कि करण से क्रिया भिन्न ही है, “प्रदीपः स्वात्मना आत्मानं प्रकाशयति" इत्यादि स्थानों पर वह क्रिया करण से अपृथक्-अभिन्न प्रतीत हो रही है। प्रदीप का जो प्रकाशरूप स्वभाव है वह प्रदीप से भिन्न नहीं है, यदि भिन्न होवे तो प्रदीप-अप्रदीप बन जायगा जैसे प्रदीप से पट पृथक् होने के कारण प्रप्रदीप है ।
शंका-प्रदीप से प्रदीप का स्वरूप भिन्न है किंतु समवाय से प्रदीप में प्रदीपत्व सिद्ध होता है ?
___समाधान-यह कथन ठीक नहीं, इसतरह अप्रदीपरूप जो घट पट आदि पदार्थ हैं उनमें भो प्रदीपपने का समवाय होने का प्रसंग पाता है । क्योंकि जैसे प्रदीपत्व आने के पहले प्रदीप अप्रदीपरूप है वैसे पट घट इत्यादि पदार्थ भी अप्रदीप हैं।
शंका--प्रत्यासत्ति की विशेषता से प्रदीप में ही प्रदीपत्वस्वरूप का समवाय होता है अन्यत्र नहीं ।
समाधान - वह प्रत्यासत्ति विशेष कौन है, कथंचित् तादात्म्य ही तो है ? तादात्म्य को छोड़कर प्रत्यासत्ति विशेष कुछ भी नहीं है ।
जिसप्रकार प्रदीप का स्वरूप प्रदीप से भिन्न नहीं है प्रदीप का प्रदीपपना या स्वरूप प्रदीपात्मक ही है ऐसा सिद्ध हुआ, इसीप्रकार प्रदीप की प्रकाशन क्रिया प्रदीप
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