Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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फलस्वरूपविचारः
५११ प्रमाणमफलव्यावृत्या च फलम् ; इत्यप्य विचारितरमणीयम् ; परमार्थतः स्वेष्टसिद्धिविरोधात् । न च स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदोप्युपपद्यते इत्युक्त सारूप्य विचारे। कथं चास्याऽप्रमाणफलव्यावृत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थावत् प्रमाणफलान्तरव्यावृत्त्याऽप्रमाणफलव्यवस्थापि न स्यात् ? ततः पारमा
समाधान-यह कथन अविचार पूर्ण है, इसतरह व्यावृत्ति की कल्पना से भेद बतायेंगे तो अपना इष्ट वास्तविकरूप से सिद्ध नहीं होगा काल्पनिक ही सिद्ध होगा। अभिप्राय यह समझना कि बौद्ध प्रमाण और उसके फल में सर्वथा अभेद बतलाकर व्यावृत्ति से भेद स्थापित करना चाहते हैं, अप्रमाण की व्यावृत्ति प्रमाण है
और अफल की व्यावृत्ति फल है ऐसा इनका कहना है किन्तु यह परमार्थभूत सिद्ध नहीं होता अप्रमाण कौनसा पदार्थ है तथा उससे व्यावृत्त होना क्या है इत्यादि कुछ भी न बता सकते हैं और न सिद्ध ही होता है। तथा प्रमाण और फल में स्वभाव भेद सिद्ध हुए बिना केवल अन्य की व्यावृत्ति से भेद मानना अशक्य है । इस विषय में साकार ज्ञानवाद के प्रकरण में [प्रथम भाग में] बहुत कुछ कह दिया है । बौद्ध अप्रमाण की व्यावृत्ति से प्रमाण की और अफल की व्यावृत्ति से फल की व्यवस्था करते हैं, तो इस विषय में विपरीत प्रतिपादन करे कि-प्रमाणान्तर की व्यावृत्ति अप्रमाण कहलाता है और फलान्तर को व्यावृत्ति अफल कहलाता है तो इसका समाधान आपके पास कुछ भी नहीं है, अतः परमार्थभूत सत्य प्रमाण तथा फल को सिद्ध करना है तो इन दोनों में कथंचित भेद है ऐसी प्रतीति सिद्ध व्यवस्था स्वीकार करना चाहिये अन्यथा प्रमाण तथा फल दोनों की भी व्यवस्था नहीं बन सकती ऐसा निश्चय हुग्रा ।
विशेषार्थ-प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न है कि अभिन्न है इस विषय में विवाद है, नैयायिकादि उमको सर्वथा भिन्न मानते हैं, तो बौद्ध सर्वथा अभिन्न, किन्तु ये मत प्रतीति से बाधित होते हैं, प्रमारण का साक्षात् फल जो अज्ञान दूर होना है वह तो प्रमाण से अभिन्न है क्योंकि जो व्यक्ति जामता है उसी को अज्ञान निवृत्ति होती है ज्ञान और ज्ञान की ज्ञप्ति-जानन क्रिया ये भिन्न भिन्न नहीं है। परवादी का यह जो कथन है कि कर्ता, करण और क्रिया ये सब पृथक् पृथक् ही होने चाहिये जैसे देवदत्त कर्ता वसूलाकरण द्वारा काष्ठ को छेदता है इसमें कर्ता करण और छेदन क्रिया पृथक् पृथक है, सो ऐसी बात ज्ञान के विषय में नहीं हो सकती यह नियम नहीं है कि कर्ता करण आदि सर्वथा पृथक् पृथक् हो हो, प्रदीप कर्ता प्रकाशरूप करण द्वारा घट
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